कला के प्रति मेरी समझ क्या है? मैं खुद से अक्सर यह सवाल करता हूँ और मेरे आलोचक या मुझे पसंद और नापसंद करने वाले लोग भी इन्हीं सवालिया नजरों से मेरी तरफ टकटकी लगाए देखते रहते हैं…
अच्छा, सबसे कमाल की बात यह है कि पिछले 33 साल में मेरा कोई भी काम किसी जिल्द के तहत प्रकाशित नहीं हुआ…हां कुछ ड्रामे, मेरे नाम से दर्ज़ ज़रूर हैं और कुछ खलाओं में उड़ती नज्में मेरा पता पूछती रहती हैं…।
लेकिन जिसे दुनिया ठोस काम कहती है, वैसा कुछ सामने नहीं आया है तब भी लोगों में यह वहम कायम है कि मैं शायर हूं, लेखक हूं।
कुछ मित्र तो मेरा तार्रुफ़ करवाते वक़्त घबराए-घबराए रहते हैं। मसलन मस्तो शायरी, ड्रामे, कहानी-वहानी, फलाने-ढमाके न जाने क्या-क्या तो जानते हैं अगर हम बताने बैठेंगे तो सुबह से शाम हो जाएगी…सो इनका तार्रुफ़ रहने दीजिए इनसे मिल लीजिए धीरे-धीरे आप जान जाएंगे। कुछ अय्यार दोस्त मेरी तुलना जादूगर की उस टोपी से करते हैं, जिसमें से कभी फूल, कभी कबूतर, कभी घड़ी, कभी खरगोश और थोड़ा जोर देने पर लड़की तक बाहर आ सकती है।
कुछ मासूम लोग कहतें हैं, ‘इनसे मिलिए ये मस्तो हैं..इनका दिल बहुत बड़ा है…मैं यह सोचता हूं कि अपने तमाम ज़रूरी अंगों को मैं बस संभाल के नहीं, बेहद छुपा के रखता हूं, इन साहब की नज़र कैसे पड़ गई…खैर! सवा रुपये का सवाल तो यह है ही।
खैर! मैंने एक नया टर्म निकला था, ‘आइ एम आर्ट एंड लाइफ प्रैक्टिसिनर’, इसे समझने के लिए एक मोहतरमा ने मुझे फेसबुक पर फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजी और आज वह मेरी महबूबा हैं..उन्होंने भी मुझसे सवाल किया था कि मस्तो तुम क्या करते हो..मैं थोड़ी देर सोच के बोला, ‘मैं लिसनर हूं रीडर हूं पोएट हूं…
उन्हें मेरे सुखन में खास दिलचस्पी नहीं है। जैसे अमूमन शायरों की बीवियों को नहीं ही होती है तो अब मैं उनसे शादी के बारे में सोच रहा हूं।
मुझे लग रहा है मैं फिजूल में दूसरी तरफ मुड़ गया। मैं कहना यह चाह रहा था कि मैं शायद अब भी पूरी तरह तय नहीं कर पाया मैं क्या हूं? हां शायर हू, इस पर पुख्तगी से टिका हुआ हूं…पर कला की क्या या कितनी समझ है मैं तय नहीं कर पाया। मैं बार-बार साहिर के उस मिसरे पे जाता हूँ “ले दे के अपने पास फ़कत इक नज़र तो है.” बस कला को समझने की नज़र है जो मेरी अपनी है (इसमें गहरा मैं यानि ईगो है, जो मुझे नज़र आता है), जो समय के साथ (मेरी अपनी समझ से) गहरी, और गहरी हो रही है…पर समुन्दर कितना गहरा है यह मुझे नहीं पता मैं बस उतरता जा रहा हूं और ज़िन्दगी में कला को देखने की जो नज़र पैदा हुई है, उससे मैं जो समझ अपने भीतर उतार पाता हूं, उसको शायद सड़ा के शराब बनाकर अपनी खराब कम्युनिकेशन स्किल के जरिये अलग-अलग बर्तनों में उड़ेलता रहता हूं। शराब बनाने के सिवा कोई और तरीका नहीं है कि समझ को लम्बे वक़्त तक महफूज रखा जा सके।
क्या आप मेरी बात समझ पा रहे हैं ?
मेरा अक़ीदा फ़िराक की उस बात पर है कि शायरी तरकारी ख़रीदने की जुबान में होती है, और मैं नस्र भी नज़्म मान के कहता हूं। मैं बिलकुल आम ज़बान में बात कहना चाहता हूं पर साहब सवाल वही है कि आम अवाम तक मेरी बात पहुंच रही है? ओके, मेरी बात तो एक क्लास के लोगों को ही समझ में आ रही है। वे उसका स्वाद भी ले रहे हैं पर, अच्छा मीर साहिब कह रहे हैं ‘शेर मेरे हैं गो खवास पसंद…गुफ्तगू मेरी अवाम से है”
इसमें दो बातें आप देख रहें हैं और ये दो बातें,दो क्लास हैं। मुझे लगता है चाहे हिंदी के अज्ञेय हों या उर्दू के फ़िराक, सब अपर क्लास या खास पसंद को पकड़े हैं। मेरे निजी खयाल में उनकी गुफ्तगू अमूमन अवाम से रही ही नहीं….(मैं शायरी के हवाले से ये बात कह रहा हूं)।
इन जैसे और इनके तमाम शागिर्दों ने बस एक क्लास के लिए शायरी की है और करते आ रहे हैं (यह और बात मुझे दोनों बेहद पसंद हैं)।
दूसरे तमाम वे लोग है जो आम लोगों से गुफ्तगू तो कर रहे पर बहुत छिछली, जो न कोई जौहर दिखा पाई न हमारे दिल ओ दिमाग को कोई राहत मिली है उससे।
जी! क्या ? नहीं मैं कोई नाम नहीं ले रहा…हांथ कंगन को आरसी क्या.. यहाँ आर.सी. न तो रॉयल चैलेंज है न रजिस्ट्रेशन सर्टिफिकेट।
बहर कैफ! मैं बस यही कह रहा था कि मीर साहिब मंतर बता गए हैं पकड़ सको तो शायरी का जिन्न काबू में कर लोगे। दोनों मिसरों को थामना है पर जोर दूसरे पर हैकि “गुफ्तगू मेरी अवाम से है” पर शेर जाना चाहिए कि आप कह सकें, “शेर मेरे हैं गो खवास पसंद”
मेरी कला की समझ यहां से शुरू होती है…
“गुफ्तगू मेरी अवाम से है…शेर मेरे हैं गो खवास पसंद”
अच्छा! आपको पता है संस्कृत में या दूसरी पुरानी ज़बानों में नस्र लिखने की परंपरा बहुत बाद की है और ऋग्वेद को संवाद या गुफ्तुगू ही माना जाता है। भरत मुनि ने अपने नाट्यशास्त्र में तो कहा ही है कि उन्होंने नाटक का सबसे ज़रूरी और पहला एलीमेंट, डायलॉग, ऋग्वेद से लिया है। गौरतलब है कि इसे वेद पोएट्री में हैं या ऐसा भी हो सकता है कि प्रोज भी वेदों का हिस्सा रहा हो पर उसे इम्प्रोवाइजेशन सा रखा जाता हो जो तयशुदा न हो और वक़्त के साथ ख़त्म हो गया हो और बस पोएट्री ही रह गई।
हो सकता है मैं आपको कंफ्यूज कर रहा हूं पर आप अगर एक तयशुदा ट्रैक पे चल रहे हैं और नया रास्ता तलाशना चाहते हैं या रास्ता तलाशना चाहतें हैं तो थोड़ा या ज्यादा भटकना मेरे ख़याल में बेहतर हैं। अभी आप मेरे साथ चलिए,बाद में तय कीजिएगा।
संस्कृत में लेखक शब्द इस्तेमाल नहीं है बस कवि ही इस्तेमाल होता रहा है…क्यों? क्योकि नस्र वस्र कुछ होता नहीं है होती शायरी ही है.. खैर ! यह बात आसानी से समझाई नहीं जा सकती। यह बात उतनी पेचीदगी लिए हुए है जैसे मैं ब्रह्म और माया को समझाऊं कि माया से ब्रह्म निकला है या दोनों एक हैं…और आप इस रहस्यवाद को सुन के कुछ ख़ास नतीजे पर नहीं पहुचेंगे, मुझे डर है आप अपना सिर या मेरा गला पकड़ सकतें हैं। ऐसे में मैं इस पर कोई तकरीर नहीं दूंगा…पर आप मुझसे मिले तो मैं इस पर बात कर सकता हूँ …जी ब्रहम और माया पे..या नस्र या नज़्म पर।
जो मेरी मोटी नज़र में एक ही है या कहूं मैं दोनों को एक ही तरह से पकड़ता या साधता हूं और मेरे सिवा और भी कई लोग इस पर बात कह चुके हैं, लेकिन मेरा इस पर भी अकीदा है शायरी (अच्छी शायरी आप समझने के लिए कह सकते हैं इसे…क्योकि बुरी शायरी जैसी कोई चीज़ नहीं होती या तो शायरी होती है या नहीं होती और ये बात भी मैंने बड़े बुजुर्गों से सुनी है फिर जानी है फिर मानी है) नस्र है…और नस्र (जी अच्छा प्रोज़) शायरी है।
आप से मैं दो जरूरी बातें कह चुका हूं।
तीसरी बात, आप ब्रह्म और माया को अलग-अलग समझें या शिव और शक्ति को यानि प्रोज़ और पोएट्री को वर्ना सब गडमड हो जाएगा। अलग-अलग समझने के बाद एक साथ समझना चाहें तो समझें। संस्कृत में प्रोज़ का इस्तेमाल इसलिए भी नहीं होता रहा क्योकि प्रोज़ जान चुके सत्य, यानि स्थिर की जुबान है जिसे हम आज विज्ञान के जुबान कह सकते हैं।आदिकवि का मानना था कि ऐसा कुछ है ही नहीं जिसे पूरी तरह जाना जा सकता है। ज्ञान एक मुसलसल चलने वाली नदी है, सो यह बात पोएट्री में ही ज़ाहिर हो सकती है. जब यात्रा चल रही प्रोसेस में हैं तब जो सत्य ज़ाहिर होगा वह पोएट्री है।आप कुछ कुछ मेरी बात समझ पाए? या आपको ऐसा लग रहा है मैं बातों में आपको घुमा रहा हूं?
एक बार फिर प्रोज में, प्रोज़ जान चुके ज्ञान के लिए है, जो स्थिर है और पोएट्री जिस ज्ञान को जाना जा रहा है,जो गतिशील है, उसके लिए है। बहुत सारी बातें कह दीं। पता नहीं आपको वह किसी काम की लगेगी या नहीं। दो और, यानि चौथी और पांचवी बात भी मैं करता चलूं….चौथी बात है एडिटिंग। यानि क्या नहीं कहना है या क्या-क्या नहीं कहना है। क्या-क्या नहीं जाहिर करना है। क्या-क्या छोड़ देना है।
योग सूत्र में एक लफ्ज आता है अपरिग्रह। मायने-जिसकी ज़रूरत नहीं है उसको मत रखो…और जो तुम्हारा नहीं है उसे मत रखो…मैं एडिटिंग के मायने यह मानता हूं….अगर कोई बात आपके भीतर यात्रा नहीं कर पाई है…या कोई लफ्ज़ आपके भीतर उतर नहीं पाया यानी आपकी बोलचाल का हिस्सा नहीं, उसे बस सुन्दरता के लिए इस्तेमाल न कीजिए…और जिस लफ्ज़ की या बात की ज़रूरत न हो मत कहिए। एडिटिंग बड़ा रियाज़ है। वह आलोचना है। अपने काम की आलोचना के लिए …आपको मेरी शुभकामनाएं हैं। और हाँ आखिरी बात है अभ्यास ! लफ्ज़ भी अपने में पोएट्री है क्योकि यह लगातार यात्रा को दिखाता है, गतिशील है। प्रकृति में परिवर्तन बस अभ्यास से संभव है। अब प्रकृति क्या है? इसको गैर हिन्दू नज़र से देखें जो अच्छा पैमाना है। जैसा आपका मूल है वैसी ही आपकी प्रकृति है। हिन्दू शास्त्र पूर्व (जन्म) की क्रिया यानि कर्म को मनुष्य की प्रकृति मानते हैं पर कान आप जैसे भी पकड़ें दोनों की आस्था इसमें है कि अभ्यास से, रियाज़ से बहुत कुछ बदल सकता है…मिल सकता है।
मैं जनता हूँ मैं कई बार आस्तिकों सा साउंड करता हूं …पर मैं क्या करूं मैं हूं वह मेरी समझने की नज़र….आप अपनी नज़र पर नज़र रखिये वह क्या कम खूब है…..खैर ! तो मैं क्या कह रहा था मेरी कला को लेकर समझ है क्या? मैं किसी नतीजे पर अब तक नहीं पंहुचा बस अपनी बात दोहरा रहा हूं। मेरी अपनी समझ है और मेरी महबूबा ने यह अब जान लिया है मैं शायर हूम जो खुद को आर्ट और लाइफ का प्रैक्टिसीनियर बताता है।
आप अहमद सलमान साहिब की एक ग़ज़ल सुनिए। शायरी उनकी नज़र से
जो दिख रहा उसी के अंदर जो अन–दिखा है वो शाइरी है
जो कह सका था वो कह चुका हूँ जो रह गया है वो शाइरी है
ये शहर सारा तो रौशनी में खिला पड़ा है सो क्या लिखूँ मैं
वो दूर जंगल की झोंपड़ी में जो इक दिया है वो शाइरी है
दिलों के माबैन गुफ़्तुगू में तमाम बातें इज़ाफ़तें हैं
तुम्हारी बातों का हर तवक़्क़ुफ़ जो बोलता है वो शाइरी है
तमाम दरिया जो एक समुंदर में गिर रहे हैं तो क्या अजब है
वो एक दरिया जो रास्ते में ही रह गया है वो शाइरी है