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निदा फ़ाज़ली साहब को याद करते हुए

महेंद्र कुमार ‘सानी‘

 

निदा फ़ाज़ली साहब को याद करते हुए, एक लेख जो आज ही के दिन पिछले साल(2016) उनकी वफ़ात पर मुझ से सुधांशु फ़िरदौस ने लिखवाया था।
हालाँकि किसी शायर को शहर का शायर, गाँव का शायर या जनता का शायर जैसे खानों में विभाजित करना शायर के साथ अन्याय होगा लेकिन समाज जब ख़ुद किसी शायर को अपना शायर कहने लगे तो ये किसी शायर के लिये सौभाग्य और सम्मान की बात होगी । 12 अक्टूबर 1938 को दिल्ली में जन्मे निदा फ़ाज़ली को समस्त हिन्दोस्तान की जनता ने स्वतः ही ये ख़िताब दिया है । विभाजन के बाद उनका परिवार पाकिस्तान हिज्रत कर गया मगर निदा फ़ाज़ली ने हिन्दोस्तान में ही रहना पसंद किया । ग्वालियर कॉलेज से M.A. की । रोज़गार की तलाश में 1964 में मुम्बई चले आये । धर्मयुग में लिखा तो कभी Blitz जैसी मग्ज़ीनों में, मगर मुम्बई में एक अरसा सर्दो-गर्म झेलने के बाद जाकर कहीं कमाल अमरोही की फ़िल्म रज़िया सुल्तान में गीत लिखने का काम मिला । गीत मशहूर हुए तो उनकी भी मकबूलियत बढ़ी ।  “लफ़्ज़ों का पुल” पहला कविता संग्रह 1969 में छपा । साहिर लुधियानवी, शकील बदायूँनी, मजरूह सुल्तानपुरी जैसे प्रतिष्ठित शायर-गीतकारों के साथ उनके  सम्बन्ध रहे । अपनी मिलनसारिता और ज़िंदादिली से सब का दिल जीत लेने वाले निदा फ़ाज़ली बेहद संवेदनशील इंसान थे ।  जीवन की गहरी अनूभूति से उनकी कविता आम आदमी के दुःख दर्द की आवाज़ बन जाती है । कबीर और नज़ीर की तरह कविता में लोक रचने के लिये हमें एक विशिष्ट भाषा की ज़रुरत होगी । मगर निदा इनफार्मेशन के स्तर तक उतर चुकी भाषा से अपनी कविता में वो लोक रचते हैं जिस में रस और ज्ञान दोनों समाहित रहते हैं ।

 

मुंह की बात सुने हर कोई, दिल के दर्द को जाने कौन

आवाजों के बाजारों में, ख़ामोशी पहचाने कौन

 

Nida Fazli

साम्प्रदायिक सद्भावना से ओत प्रोत उनकी कविता किसी तत्वज्ञानी फ़क़ीर की सदा बन गयी है ।

 

पंछी मानव, फूल, जल, अलग-अलग आकार

माटी का घर एक ही, सारे रिश्तेदार  

 

इंसान को कोई भी सरहद नहीं बाँट सकती । एक तरफ जहाँ निदा फ़ाज़ली हिन्दोस्तान में बसते हैं तो दूसरी तरफ उनका दिल सरहद पार के लोगों के लिये दुआएं करता रहता है ।

 

हिन्दू भी मज़े में है मुसलमां भी मज़े में         

इंसान परेशान यहाँ भी है वहां भी

 

उनका जीवन और उनकी कविता दो अलग-अलग चीज़ें कभी नहीं रही हैं । उन्होंने ने जैसा जिया वैसा रचा । वो चाहे फ़िल्मी गीत हों या ख़ालिस साहित्यिक रचनाएँ हों सब में अपनी अनुभूति की छाप छोड़ते नज़र आये हैं । प्रेम और करुणा उनकी दृष्टि है ।

 

होश वालों को ख़बर क्या बेख़ुदी क्या चीज़ है

इश्क़ कीजे फिर समझिये ज़िन्दगी क्या चीज़ है

 

अपनी कविता में उन्होंने उर्दू और हिन्दी की भाषाई दीवार ही गिरा दी है । वो संभवत: उर्दू के अकेले ऐसे लेखक हैं जिनकी रचना को उर्दू या हिंदी किसी भी भाषा में ज्यों का त्यों रखा जा सकता है ।

 

सीधा सादा डाकिया, जादू करे महान

एक ही थैले में भरे आंसू और मुस्कान

 

निदा फ़ाज़ली की कविता भी जैसे कोई जादू है । सुनने व पढ़ने वालों के दिलों पर एक जैसा असर करती है ।

एक बात जो मुझे उनके हवाले से सदा हैरान करती रही कि वो इतनी ऊर्जा कहाँ से लाते थे । हिन्दोस्तान, पाकिस्तान और बेरूनी मुमालिक में छपने वाले हर अच्छे रिसाले में उनका ताज़ा कलाम पढ़ने को मिलता है । हाल ही में जयपुर से छपने वाले उर्दू रिसाले “इस्तफ़सार” में उनकी कवितायेँ पढ़ीं जो आज भी उतनी ही प्रभावशाली हैं जितनी “खोया हुआ सा कुछ” की कवितायें ।

वो 1999 में कविता संग्रह “खोया हुआ सा कुछ” के लिए साहित्य अकादमी अवार्ड से सम्मानित हुए । 2013 में भारत सरकार की तरफ से “पद्म श्री” से नवाज़े गए । उनकी जीवनी के दो खंड “दीवारों के बीच”और “दीवारों के बाहर” उनकी अपनी ज़िन्दगी, साहित्य और सामाजिक परिवेश का महत्वपूर्ण दस्तावेज़ हैं । मुलाकातें (ख़ाके), आँखों भर आकाश (शायरी),आँख और ख्व़ाब के दरमियाँ (शायरी) शह्र में गाँव (शायरी) उनकी कुछ अन्य चर्चित किताबें हैं । जगजीत सिंह की आवाज़ में गाई गईं उनकी ग़ज़लें लोगों के दिलो-ज़ेहन में हमेशा ज़िन्दा रहेंगी । क्या संयोग है आज जगजीत सिंह का जन्म दिन मनाया जा रहा है । जब जगजीत सिंह को लोग निदा फ़ाज़ली की ग़ज़लों के हवाले से याद कर रहे होंगे ठीक उसी दिन निदा फ़ाज़ली को याद करेंगे मगर किसी और हवाले से । उन्होंने ने ही कहा है,

 

“दुनिया जिसे कहते हैं, जादू का खिलौना है”

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