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The Bewajah Post
September 1, 2016
शकुंतला और जूलिएट
September 8, 2016

मिस्तरी पर भी लिखा जा सकता है क्या ?

Himanshu Bajpai

पुराने लखनऊ में सिटी स्टेशन के पास एक छोटी सी गुमटी है, जहां स्कूटर मोटरसाइकिल वगैरह ठीक होती है. ये गुमटी जिन मिस्तरी साहब की है, वो सन्डे के सन्डे बिलानागा नाचीज़ का कॉलम लखनऊवा पढ़ते हैं. हालांकि पढ़े लिखे ज्यादा नहीं हैं, मगर उनकी रूह लखनवियत से सरशार है, इसलिए इल्मो-फज़्ल और दानिश्वरी उन्हे ‘ऑनरेरी’ तौर पर अता हो जाती है. लखनऊ की तहज़ीब-ओ-तारीख़ में गहरी दिलचस्पी रखते हैं. एक दिन मैं स्कूटी की लाइट ठीक करवाने उनके अड्डे पर गया. देखते ही बोले- भाई लखनऊवा हर इतवार पढ़ते हैं हम. फिर पिछले कई बार के लखनऊवा क़िस्से सुनाने लगे. ये साबित करने के लिए कि वो सचमुच पढ़ते हैं, यूं ही नहीं कह रहे. इसके बाद हाथ से इशारा करते हुए संजीदा लहजे में बोले- भाई कभी इस पे (रिफाह-ए-आम क्लब, जहां प्रगतिशील लेखक संघ का पहला सम्मेलन हुआ था) लिखिए कुछ. देखिए क्या हालत है. उसपे (निशान-ए-मीर, मीर तक़ी मीर का स्मारक) लिखिए. कोई पूछ ही नहीं रहा. कित्ती अहम जगह हैं दोनो. तवज्जो ही नहीं कोई. कुछ कीजिए. इनकी हालत सुधर जाए बस…

एक छोटा मिस्तरी अपने शहर को लेकर कितने बड़े सरोकार रखता है, अभी मैं इस पर हैरत कर ही रहा था कि वो कहीं फोन मिलाने लगे…फिर बोले- आप क़िस्से लिखते हैं न, अभी एक आदमी को बुला रहे हैं, रिफह-ए-आम के बहुत क़िस्से मिल जाएंगे उनसे… उनको फोन करके बुला लिया. फिर पूछा, काकोरी कबाब पे लिखेगें ? वो जिनका है अभी उनको भी बुलाए देते हैं…ग़रज़ के उस आदमी को भी फोन करके बुला लिया. फिर कहने लगे कि एक और साहब हैं, बुलंद बाग़ ही में रहते हैं. बहराइच गए हैं रिश्तेदारी में. उनसे भी आपकी मुलाकात करवाएंगे. नवाबों के बारे में बहुत जानकारी है उनको…किसी दिन सुबह आइए छह-सात बजे तो आपको दिखवा दें रिफह-ए-आम, अंदर से. इसी बीच वो दोनो लोग जिनको फोन करके बुलाया था, हाज़िर हो गए. दोनो के बारे में मुझे तफ़सील से बताया. फिर उनसे बोले कि इन्हे क़िस्से बता देना जब वक्त हो. ये हमारे छोटे भाई हैं. अख़बार में लिखते हैं.

मै सोच ही नहीं पाया कि इस ख़ुलूस के लिए उनका शुक्रिया कैसे अदा करूं. सड़क किनारे मोटरसाइकिल सही करने वाला एक आम मिस्तरी, मेहनत करते करते जिसके चेहरे से लेकर हाथ-पांव तक हर जगह कालिख लगी है , (ये अलग बात है कि इसी जी तोड़ मेहनत ने उसकी रूह को एकदम उजला कर दिया है), उसे आपका लिखा हर्फ-ब-हर्फ याद है. वो पूरे इन्हिमाक से आपको आपके कॉलम के मौज़ूआत दे रहा है, जानकार लोगों को पलक झपकते आपकी ख़िद्मत में हाज़िर कर रहा है, अपने शहर की ऐतिहासिक धरोहरों को लेकर इतना फिक्रमंद है कि आपको बार बार इन पर लिखने के लिए प्रेरित कर रहा है. उसका शुक्रिया आप किस तरह अदा कर सकते हैं ? किसी तरह नहीं. लिहाज़ा मैने उनसे कहा कि शुक्रिया कहने के बदले मैं आपको एक लखनऊवा क़िस्सा सुना देता हूं. मिस्तरी पर. यही इस बार के कॉलम में लिख दूंगा. वो ख़ुश हो गए. चहक कर बोले- ज़रूर… मिस्तरी पर भी लिखा जा सकता है क्या ? मैने कहा- क्यों नहीं… सुनिए..

इसी शहर में दो ग़रीब बच्चे थे. एक दूसरे के पक्के दोस्त. उनमें से एक पढ़ने में बहुत अच्छा था. एक थोड़ा कमज़ोर था. वक्त आगे बढ़ता रहा और इसी के साथ इनकी दोस्ती भी बढ़ती रही. जो बच्चा पढ़ने में अच्छा था, वो बडा होकर जज बन गया. कमज़ोर वाले बच्चे ने सड़क किनारे एक छोटी सी गुमटी रख ली और मिस्तरी का काम करने लगा. मगर ये अंतर भी इनकी दोस्ती को नहीं हिला पाया. पूरा शहर उनकी दोस्ती की मिसाल देता था…बहरहाल आसमां रात दिन गर्दिश करता रहा. ये दोनो मुसलसल बूढ़े होते गए. उनकी दोस्ती मुसलसल जवान होती गयी….

फिर एक दिन मिस्तरी के बेटे ने कोई जुर्म कर दिया. पुलिस आई और उसे पकड़ ले गयी. हुस्ने इत्तेफाक़ देखिए कि मिस्तरी के बेटे का केस उसी जज की अदालत में पहुंचा. मिस्तरी ने राहत की सांस ली कि अब उसका बेटा बच जाएगा. वो फ़ौरन अपने दोस्त के पास पहुंचा और उससे आग्रह किया कि वो किसी तरह उसके बेटे को बचा ले. उसके हक़ में फैसला दे. जज मुश्क़िल में पड़ गया. क्या किया जाए. एक तरफ उसके जिगरी दोस्त का बेटा था, वही बेटा जो कभी उसकी गोद में खेला था. जो उसे अपने बेटे की तरह अज़ीज़ था. अगर फैसला ख़िलाफ हुआ तो उसके दोस्त पर ग़मों का पहाड़ टूट पड़ेगा. उसे भी सख़्त अजीयत होगी. बरसों पुरानी वो दोस्ती भी नहीं बचेगी, जाएगी ज़माना जिसकी मिसाल देता है. मगर दूसरी तरफ उसे अपने काम की भी आबरू रखनी थी. वो काम जिसमें इंसाफ सबसे ऊपर होता है. वो बड़ी उलझन में था कि क्या करे….कुछ नहीं कर सका. ख़ामोश बैठा रहा. काफ़ी देर तक. फिर एकदम से उठा…और मिस्तरी का हाथ पकड़ कर उसे घर के स्टोर-रूम में ले गया. जहां उसके पिता जी की एक पुरानी स्कूटर पड़ी थी. जो उन्होने किसी से थर्ड-फोर्थ हैऩ्ड खरीदी थी. जिसे दोनो दोस्त मिलकर बचपन से ही हवा में उड़ाने लगे. बहुत तफरीह की थी दोनो ने इस पर. बहुत मार भी खाई थी इसकी वजह से. मगर अब तो इस स्कूटर का सिर्फ ढांचा बचा था. पुर्जा पुर्जा ख़राब हो चुका था. कोई हिस्सा मुकम्मल नहीं था. जज ने ये स्कूटर महज़ इसलिए रखी थी क्योंकि ये उसके बचपन की निशानी थी. हटाना तो दूर वो इसे छूने की भी हिम्मत नहीं जुटा पाता था.

बहरहाल मिस्तरी को स्टोर में लाकर जज ने स्कूटर की तरफ इशारा किया और उससे पूछा- ये देख रहे हो ? मिस्तरी ने जवाब दिया- हां. जज बोला- इसे ठीक कर दो. मिस्तरी ने एक नज़र स्कूटर को देखा….और जवाब दिया- ये नहीं ठीक हो सकती. जज ने पूछा- क्यों ? मिस्तरी ने जवाब दिया- इसमें कुछ बचा हो तब तो ठीक हो. जज ने कहा- एक बार कोशिश तो करो. मिस्तरी बोला- पचास साल हो गए स्कूटर बनाते. देख के बता देता हूं क्या बनेगा क्या नहीं. जज बोला- मैं भी पचास साल से जानता हूं कि तुम अगर अपनी पे उतर आओ तो बना के ही मानोगे. मिस्तरी पता नहीं क्यों अपनी तारीफ सुनकर चिड़चिड़ा गया. शायद बेटे के केस की चिंता थी, बोला- मैं क्या अगर भगवान भी धरती पे उतर आएं तो इसे नहीं बना सकते. तुम समझते क्यों नहीं. जज ने बेहद नर्म लहजे में कहा. तुम गुस्सा मत हो मेरी जान. नहीं बनेगी तो न बने. अब मिस्तरी कुछ नर्म पड़ा और बोला- मेरी बात मानो प्यारे. इसमें कोई झस नहीं है. अब जज ने मिस्तरी के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा- साहबज़ादे के केस में भी कोई झस नहीं है. मैं उसे कैसे बचाऊं ? मैं जानता हूं कि तुम मेरे पास उम्मीद का समंदर लेकर आए हो, मगर केस में उम्मीद का क़तरा तक नहीं. बताओ क्या करूं मैं ?

बात मिस्तरी की समझ में आ गयी. वो ख़ामोशी से चलकर अपने दोस्त के पास आया और हल्के से बुदबुदाया- इसीलिए पंच को परमेश्वर कहते है… दोनो एक दूसरे से लिपट कर रोने लगे…blog1

मगर हमारे मिस्तरी साहब क़िस्सा ख़तम होने पर मुस्कुरा रहे थे. कहने लगे- वाह ! मिस्तरी की कहानी भी सुना लेते हैं आप ! ये अच्छा है… जब गाड़ी भाग रही होती है तब किसी को दिखता ही कहां है मिस्तरी. जब बिगड़ जाती है तब याद आता है. मिस्तरी कहां है ? ढूंढा जाए… पैसा है तो सब लल्लो-चप्पो करेंगे… मैने उनसे कहा- ये इस बार के लखनऊवा में छपेगा. आपका ज़िक्र भी होगा. इसपर वो सरापा तकल्लुफ बन गए, वो भी लखनऊवा तकल्लुफ…बोले- मेरा नाम मत छापिएगा मेहरबानी करके…

उनके हुक्म की तामील हुई है.

वो जो आब-ए-ज़र से रकम हुई वो दास्तान भी मुस्तनद
वो जो ख़ून-ए-दिल से लिखा गया वो हाशिया भी तो देखते !

(इस पोस्ट का संपादिश अंश नवभारत टाइम्स लखनऊ के सन्डे कॉलम ‘लखनऊवा’ में छप चुका है. कॉलम पढ़ने के बाद मिस्तरी साहब इतने ख़ुश हुए कि उन्होने अंतत: अपना नाम सार्वजनिक करने की इजाज़त दे दी है. बहुत ख़ूबसूरत नाम है उनका- ‘चांद’ !)

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