साथियों,
हम अपनी बात संपादकाचार्य बाबूराव विष्णु पराड़कर की एक टिप्पणी से शुरू करेंगे, जो उन्होंने 1925 में वृंदावन में आयोजित हिंदी संपादक सम्मेलन में सभापति के हैसियत से कही थी। ‘समाचार पत्रों का आदर्श’ शीर्षक से दिए गए व्याख्यान में भविष्य में हिंदी के समाचार पत्र कैसे होंगे, इस पर पराड़करजी ने प्रकाश डालते हुए कहा था कि ‘पत्र सर्वांग सुन्दर होंगे। आकार बड़े होंगे, छपाई अच्छी होगी, मनोहर, मनोरंजक और ज्ञानवर्द्धक चित्रों से सुसज्जित होंगे, लेखों में विविधता होगी, कल्पकता होगी, गंभीर गवेषणा की झलक होगी और मनोहारिणी शक्ति भी होगी, ग्राहकों की संख्या लाखों में गिनी जायगी। यह सब होगा पर पत्र प्राणहीन होंगे।’
करीब 92 साल पहले पराड़करजी के दिए गए व्याख्यान से पता चलता है कि वह पत्रकारिता की मौजूदा अनुभूतियों के साथ-साथ भविष्य में होने वाले बदलावों को भी बखूबी पहचान रहे थे। उन्होंने हिंदी समाचार पत्रों के संबंध में जब यह बात कही थी उस समय टेलीविजन पत्रकारिता का नामोनिशां नहीं था, लेकिन उनकी बात हिंदी समाचार पत्रों के साथ-साथ आज की टेलीविजन पत्रकारिता पर भी पूरी तरह से लागू होती है। जैसा कि आप सब जानते हैं कि भारत में पत्रकारिता की शुरुआत मुनाफा कमाने के लिए नहीं हुई थी। पत्रकारिता का उद्देश्य देश में नवजागरण लाने और उस नवजाग्रत समाज को स्वतन्त्रता आंदोलन के लिए प्रेरित करने का था। आज की तरह उस समय ऐसे व्यावसायिक पत्रकार नहीं थे, जिनका काम महज एक समाचार पत्र निकालना अथवा टीवी न्यूज चैनल चलाना होता। उस समय सभी भाषाओं के बड़े लेखकों ने समाचार पत्र निकालने अथवा उसमें सहयोग करने का जिम्मा अपने ऊपर लिया था। ऐसा करते हुए उन्होंने अपनी लेखनी से चेतना का प्रसार करने और बराबरी का समाज बनाने का काम किया। पहले जिस तरह लेखक ही पत्रकार और संपादक होते थे उसी तरह पहले के अधिकांश नेता भी पत्रकार और संपादक की जिम्मेदारी निभाते थे। कांग्रेस की स्थापना करने वाले करीब 70 फीसदी लोग किसी न किसी रूप में पत्रकारिता से जुड़े थे। बाबूराव विष्णु पराड़कर जिस समय सक्रिय पत्रकारिता करते हुए नवजागरण लाने की दिशा में काम कर रहे थे ठीक उसी समय महात्मा गांधी भारतीय स्वतन्त्रता आंदोलन का नेतृत्व कर रहे थे। स्वतन्त्रता आंदोलन में गांधी की जो भूमिका रही है, हिंदी पत्रकारिता के क्षेत्र में पराड़करजी का भी वही योगदान है। पराड़करजी जिस समाचार पत्र ‘आज’ के लंबे समय तक संपादक रहे वह गांधी की नीतियों का प्रबल पक्षधर था। गांधी समाचार पत्रों की ताकत को पहचानते थे। उसका सदुपयोग वह दक्षिण अफ्रीका में ‘इंडियन ओपीनियन’ नामक पत्र निकाल कर कर चुके थे। एक तरह से गांधी एक चालाक राजनीतिज्ञ थे। यहां चालाक शब्द का इस्तेमाल नकारात्मक तौर पर नहीं किया जा रहा है। गांधी को यह पता था कि उन्हें अपनी बात आम जनमानस के बीच कैसे पहुंचानी है। इसी नीति के तहत उन्होंने भारतीय राजनीति में समाचार पत्रों का देश और समाज हित में सबसे ज्यादा सदुपयोग किया। उनकी पत्रकारिता का प्रमुख उद्देश्य जनता तक पहुंचना था। अपने इसी उद्देश्य के तहत उन्होंने समाचार पत्रों को खासा महत्व दिया। उन्हें यह बात स्वीकारने में गुरेज भी नहीं था। अपनी इसी बेबाकी का परिचय देते हुए उन्होंने 2 जुलाई 1925 को ‘यंग इंडिया’ में लिखा था कि ‘पत्रकारिता में मेरा क्षेत्र मात्र यहां तक सीमित है कि मैंने पत्रकारिता का व्यवसाय अपने जीवन के उद्देश्य को पूरा करने में एक सहायक के रूप में चुना है।’
गांधी तकरीबन आधा दर्जन समाचार पत्रों के संपादन और प्रकाशन से जुड़े रहे। इसके अलावा उनका प्रयास रहता था कि उनकी लिखी और बोली बातों को देश के अन्य समाचार पत्र भी महत्व दें। इसके लिए वह जिस भी शहर की यात्रा करते थे वहां के समाचार पत्रों के संपादकों से अवश्य मिलते थे। इस मेल-मिलाप के लिए उन्हें अनेक बार घंटों इंतजार तक करना पड़ता था। यही नहीं उन्हें अपने विरोधी पक्ष वाले संपादकों से भी मिलने में गुरेज नहीं था। एक घटना प्रयाग से प्रकाशित होने वाले ‘पायोनियर’ पत्र से जुड़ी है। जुलाई 1896 में गांधी कलकत्ता-बम्बई मेल से राजकोट के लिए जा रहे थे। पांच जुलाई को लगभग 11 बजे दिन में ट्रेन इलाहाबाद पहुंची, जहां उसका 45 मिनट का स्टापेज होता था। गांधी इस समय का सदुपयोग करना चाहते थे। इतने समय में इलाहाबाद की एक झलक लेने के साथ ही उन्हें दवा लेनी थी। दवा लेने में देर लग गई और जब गांधी स्टेशन पहुंचे तो गाड़ी चलती दिखाई दी। स्टेशन मास्टर भला था सो उसने गांधीजी का सामान उतरवा दिया था। इस परिस्थिति में गांधी को अब दूसरे दिन ही जाना था। एक दिन का उपयोग कैसे हो, इसके लिए गांधी ने अंग्रेज सरकार के हिमायती पत्र ‘पायोनियर’ के संपादक से मिलने की सोची। गांधी लिखते हैं कि ‘यहां के पायोनियर पत्र की ख्याति मैंने सुनी थी। भारत की आकांक्षाओं का वह विरोधी है, यह मैं जानता था। मुझे याद पड़ता है कि उस समय मि. चेजनी उसके संपादक थे। मैं तो सब पक्षों के आदमियों से मिलकर सहायता प्राप्त करना चाहता था। इसलिए मैंने मि. चेजनी को मुलाकात के लिए पत्र लिखा। चेजनी ने बुला लिया। उन्होंने गौर से मेरी बातें सुनीं। मुझे आश्वासन दिया कि आप जो कुछ लिखेंगे, मैं उस पर तुरन्त टिप्पणी करूंगा। परन्तु मैं आपको यह वचन नहीं दे सकता कि आपकी सब बातों को मैं स्वीकार कर सकूंगा।’
गांधी पत्रकारिता में बाहरी धन लगाने को खतरनाक मानते थे। इसीलिए वह अपने समाचार पत्र ‘नवजीवन’ और ‘यंग इंडिया’ में विज्ञापन नहीं छापते थे। अपनी इस नीति के बारे में उनका मानना था कि विज्ञापन न छापने से उन्हें अथवा उनके पत्रों को किसी तरह का नुकसान नहीं हुआ बल्कि ऐसा करने से पत्रों के विचार स्वातंत्र्य की रक्षा करने में मदद मिली। एक तरह से वह पत्रकारिता को दो रूपों में विभाजित करते थे-एक व्यवसायिक पत्रकारिता और दूसरा लोकसेवी पत्रकारिता। वह मानते थे कि पत्रकारिता को व्यवसाय बनाने से वह दूषित हो जाती है और लोकसेवा के लक्ष्य से भटक जाती है। समाचार पत्रों में प्रकाशित होने वाले समाचारों और लेखों पर उस समय कितना ध्यान दिया जाता था, इस संबंध में दो घटनाओं का उल्लेख करना आवश्यक है। पहली घटना गांधीजी से जुड़ी है, जिसका जिक्र उन्होंने अपनी आत्मकथा में किया है, ‘इंडियन ओपीनियन में मैंने एक भी शब्द बिना बिचारे, बिना तौले लिखा हो या किसी को खुश करने के लिए लिखा हो अथवा जान-बूझकर अतिशयोक्ति की, ऐसा मुझे याद नहीं पड़ता। मेरे लिए यह अखबार संयम की तालीम सिद्ध हुआ।…इस अखबार के बिना सत्याग्रह की लड़ाई चल नहीं सकती थी।’ दूसरी घटना कांग्रेस और गांधीजी की नीतियों के प्रबल पक्षधर ‘आज’ समाचार पत्र से जुड़ी है। बनारस से प्रकाशित ‘आज’ के मालिक शिव प्रसाद गुप्त थे और संपादक पराड़करजी। गुप्तजी आज के दौर के मालिकानों की तरह नहीं बल्कि जानकार व्यक्ति थे। साहित्य अनुरागी थे। लेखकों और संपादकों का सम्मान करते थे। इसी दरम्यान उन्होंने एक लेख लिखा। पराड़करजी को देखने के लिए दिया। उन्होंने देखकर बताया कि लेख छपने योग्य नहीं है। आप इसे दोबारा लिखने का प्रयास करें। शिव प्रसाद गुप्त लेख दोबारा लिखकर पराड़करजी से मिलने पहुंचे। उन्होंने पढ़ा और कहा कि गुप्तजी बात बनी नहीं। गुप्तजी ने अनुरोध किया कि मेरी इच्छा है कि यह छप जाए। पराड़करजी ने सुझाव दिया कि यह विज्ञापन के रूप में छप जाएगा और वह लेख विज्ञापन के रूप में छपा, जिसका शिव प्रसाद गुप्त ने बाकायदा भुगतान किया। इन दो घटनाओं से उस दौर की पत्रकारिता को समझा जा सकता है, लेकिन इसका यह मतलब बिलकुल नहीं कि उस समय की पत्रकारिता में कमियां नहीं थीं। उस दौर में भी पत्रकारिता के एक हिस्से पर आरोप लगे। सांप्रदायिकता को बढ़ावा देने का आरोप लगा। जिस समाचार पत्र ‘मतवाला’ का बड़े सम्मान के साथ नाम लिया जाता है उसके मालिक को जेल तक जाना पड़ा। समाचार पत्रों के इस रवैये से खिन्न होकर ही भगत सिंह ने जून 1927 में ‘किरती’ पत्रिका में लिखा था कि ‘पत्रकारिता व्यवसाय जो किसी समय बहुत ऊंचा समझा जाता था, आज बहुत गंदा हो गया है। यह लोग एक-दूसरे के विरुद्ध बड़े मोटे-मोटे शीर्षक देकर लोगों की भावनाएं भड़काते हैं और परस्पर सिर फुटौवल कराते हैं। एक-दो जगह नहीं, कितनी ही जगहों पर इसलिये दंगे हुए हैं कि स्थानीय अखबारों ने बड़े उत्तेजनापूर्ण लेख लिखे हैं। अखबारों का असली कर्तव्य शिक्षा देना, लोगों से संकीर्णता निकालना, सांप्रदायिक भावनाएं हटाना, परस्पर मेल-मिलाप बढ़ाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता बनाना था, पर उन्हें दुख है कि इन्होंने अपना कुल कर्तव्य अज्ञान फैलाना, संकीर्णता का प्रचार करना, सांप्रदायिक लड़ाई-झगड़ा करवाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है।’
करीब 90 साल पहले लिखी भगत सिंह की बातें इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक की पत्रकारिता पर एकदम सही साबित हो रही हैं। पहले और आज के समय में अंतर केवल इतना है कि आज अज्ञानता, सांप्रदायिकता, संकीर्णता फैलाने और साझी राष्ट्रीयता को नष्ट करने के कारोबार में समाचार पत्रों से आगे टीवी न्यूज चैनल अपनी भूमिका निभा रहे हैं। जहां तक गांधीजी की बात है तो वह समाचार पत्रों की शक्ति सकारात्मक और नकारात्मक दोनों सन्दर्भों में पहचानते थे। उसको लेकर सचेत रहते थे। इसी बात को केन्द्र में रखकर उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है, ‘समाचार पत्र एक जबरदस्त शक्ति है, किन्तु जिस प्रकार निरंकुश पानी का प्रवाह गांव के गांव डुबो देता है और फसल को नष्ट कर देता है, उसी प्रकार कलम का निरंकुश प्रवाह भी नाश की सृष्टि करता है। यदि अंकुश बाहर से आता है तो वह निरंकुशता से भी अधिक विषैला सिद्ध होता है।’ वैसे पत्रकारिता में जब-जब कलम निरंकुश होती है तो उसकी भरपाई देश और समाज को करनी पड़ती है। भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के दरम्यान जहां पत्रकारिता के एक हिस्से पर ही सवाल उठे थे वहीं आजादी के बाद खासकर सत्तर के दशक के बाद उसमें खासी गिरावट देखने को मिली। आपातकाल एक ऐसी घटना है, जहां भारतीय पत्रकारिता दो खेमों में बंटी नजर आई। एक पक्ष आपातकाल के समर्थन में खड़ा नजर आया तो दूसरा आपातकाल के विरोध में। बहुत कम लोगों ने तीसरे पक्ष यानी संतुलित होकर बात की। इसे दूसरे तरीके से भी कह सकते हैं कि आपातकाल से जहां सत्ता का अलोकतांत्रिक चेहरा सामने आया वहीं सेंसरशिप ने भारतीय पत्रकारिता की अवसरवादिता को सामने लाने का काम किया। इससे यह भी पता चला कि आधुनिक कही जाने वाली भारतीय पत्रकारिता ने स्वतन्त्रता आंदोलन की पत्रकारिता की विरासत से स्वयं को अलग कर लिया है। इस बदलाव का लाभ पत्रकारिता के कुलीन तबके को मिला। सत्ताधारियों और समाचार पत्र के मालिकों को यह अहसास हो गया कि संपादकों और पत्रकारों का आवश्यकतानुसार इस्तेमाल किया जा सकता है। इसी के साथ संपादकीय आचार-विचार का दोहन शुरू हो गया। पत्रकारिता में नई-नई प्रवृत्तियां उभरने लगीं। प्रबंधन और विज्ञापन संस्था का प्रभुत्व बढ़ने लगा तो संपादकीय का प्रभुत्व कमजोर होने लगा।
इस तरह पत्रकारिता के लिए आपातकाल वाला दशक सबसे अधिक नुकसानदायक रहा। आपातकाल के बाद सत्ता में आने वाली जनता पार्टी सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने अभियान चलाकर पत्रकारिता में एक खास विचारधारा के लोगों को प्रमुख पदों पर नियुक्त कराया, जिसका परिणाम यह हुआ कि धीरे-धीरे समाचार पत्रों में उस खास विचारधारा के लोगों की बहुतायत हो गई। यही वजह है कि जब मंडल के बाद कमंडल का दौर आया तो पत्रकारिता खासकर हिंदी पत्रकारिता में उक्त विचारधारा वालों ने पत्रकार कम बल्कि विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल और संघ के कार्यकर्ता वाली भूमिका ज्यादा निभाई। दूसरी ओर उर्दू पत्रकारिता में पत्रकारों ने पत्रकार कम बल्कि मुस्लिम लीग से जुड़े होने का परिचय अधिक दिया। इन पत्रकारों ने गांधी की उन पंक्तियों को भी याद नहीं रखा, जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘अपनी निष्ठा के प्रति ईमानदारी बरतते हुए मैं दुर्भावना या क्रोध में कुछ भी नहीं लिख सकता। मैं निरर्थक नहीं लिख सकता। मैं केवल भावनाओं को भड़काने के लिए भी नहीं लिख सकता। लिखने के लिए विषयों तथा शब्दावली को चुनने में मैं हफ्तों तक जो संयम बरतता हूं, पाठक उसकी कल्पना नहीं कर सकता।’ राम मंदिर-बाबरी मस्जिद विवाद के दौरान सांप्रदायिकता को बढ़ावा देने वाली पत्रकारिता की बात लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट में भी विस्तृत रूप से कही गई है। रिपोर्ट का सार है कि पत्रकारिता ने तटस्थ रूप से काम करने के बजाय लोगों को भड़काने का काम किया। एक बात ध्यान देने वाली है कि अगर किसी खास विचारधारा के लोगों को नियुक्त किया जाता है तो उसका असर तत्काल नहीं बल्कि आने वाले समय में देखने को मिलता है। इसकी गवाही मंदिर-मस्जिद विवाद के साथ ही मुम्बई, गुजरात से लेकर मुजफ्फरनगर दंगे तक में की जाने वाली पत्रकारिता से मिलती है। ऐसी पत्रकारिता करने वाले पत्रकार और संपादकों के लिए पराड़करजी की चंद पंक्तियां फिट बैठती हैं, जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘यदि हममें योग्यता हो और यदि सचमुच हम कुछ देश सेवा करना चाहते हों तो हमें अपने पत्रों में सदा सर्व प्रकार से उच्च आदर्श को स्थान देना चाहिए। पत्र बेचने के लाभ से अश्लील समाचारों को महत्व देकर तथा दुराचरणमूलक अपराधों का चित्ताकर्षक वर्णन कर हम परमात्मा की दृष्टि में अपराधियों से भी बड़े अपराधी ठहर रहे हैं, इस बात को कभी न भूलना चाहिए। अपराधी एकाध पर अत्याचार करके दण्ड पाता है और हम सारे समाज की रुचि बिगाड़ कर आदर पाना चाहते हैं।’ आज यही काम अधिकांश पत्रकारिता कर रही है। वह देश भक्ति के नाम पर सरकार की नीतियों की आलोचना करने वालों को कठघरे में खड़ा कर रही है। उन्हें देशद्रोही बता रही है। अश्लील समाचारों को महत्व दे रही है। अपराधियों का महिमामंडन कर रही है। उसे नहीं पता कि गांधी ने भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान प्रेस के संबंध में कहा था कि ‘राष्ट्रीय संस्थाओं और राष्ट्रीय नीतियों की ईमानदारी से आलोचना करने से राष्ट्रीय हितों को कभी नुकसान नहीं होगा।’ इतना ही नहीं नागरिकों को किसी विचार अथवा नीतियों से असहमति जताने का अधिकार संविधान से मिला है। इसके बावजूद मौजूदा समय में असहमति जताने वालों को कुछ ज्यादा ही निशाना बनाया जा रहा है और ऐसा करने वालों को सरकार की तरफ से भी अपरोक्ष रूप से शह मिली है।
कमंडल के दरम्यान ही लागू की जाने वाली भूमंडलीकरण की नीतियों ने देखते ही देखते भारतीय पत्रकारिता का पूरा परिदृश्य बदल दिया। समाचार पत्रों के राज्य संस्करण जिलेवार संस्करणों में तब्दील हो गए। जिलेवार संस्करणों को भरने के लिए कुछ भी प्रकाशित किया जाने लगा। गंभीर बातों को नजरअंदाज करके लफंगों को महत्व दिया जाने लगा। आज स्थिति यह है कि आपके अगर 15 से 20 लफंगे बनाए बनते हैं, जो किसी भी मसले पर जिंदाबाद-मुर्दाबाद नारे लगा सकते हों। किसी के ऊपर जूता फेंक सकते हों। किसी के चेहरे पर स्याही फेंक सकते हों। पाकिस्तान को औकात बता देने वाली भाषा बोल सकते हों तो आप किसी भी समाचार पत्र के पृष्ठ पर सुशोभित हो सकते हैं। किसी भी टीवी न्यूज चैनल के प्राइम टाइम में मेहमान हो सकते हैं। अचानक आपकी पूछ बढ़ जाती है। आप अपने में गौरवान्वित महसूसते हैं।
दूसरे प्रेस आयोग ने कहा था कि भारतीय भाषाओं, स्थानीय तथा अन्य छोटे और मध्यम समाचार पत्रों के विकास में योगदान देना जरूरी है। आयोग का मानना था कि ऐसा होने से पत्रकारिता में विविधता बनी रहेगी। मोनोपाली का खतरा नहीं होगा, लेकिन आयोग की इस सिफारिश पर किसी भी दल की सरकार ने तवज्जो नहीं दी। आज करीब 38 साल बाद आयोग की आशंका पूरी तरह सच साबित हो रही है। भारतीय पत्रकारिता में कुछ कारपोरेट घरानों का एकाधिकार हो चुका है। चंद मीडिया घरानों ने पत्रकारिता के अधिकांश क्षेत्र पर कब्जा कर लिया है। देश के प्रिंट मीडिया पर 9 बड़े मीडिया घरानों का प्रभुत्व हो चुका है। यही स्थिति इलेक्ट्रानिक मीडिया की भी है। मीडिया के इस बदले परिदृश्य में एक-एक घराने के कई-कई टीवी न्यूज चैनल हैं। एफएम रेडियो स्टेशन हैं। समाचार पत्र-पत्रिकाएं हैं। वेबसाइट्स हैं। वे एक तरह के मीडिया एकाधिकार के तहत काम कर रहे हैं। यानी जिस खबर को वह चमकाना चाहते हैं वह चमकती है और जिसे मिटाना चाहते हैं वह फिर कहीं नहीं ठहरती। अगर यही हाल रहा तो आने वाले कुछ वर्षों में पूरी तरह से मीडिया एकाधिकार के हालात पैदा हो जाएंगे।
इक्कीसवीं सदी की पत्रकारिता में पत्रकारिता और लोकतंत्र को चोट पहुंचाने वाली अनेक घटनाएं घटी हैं। इसमें सबसे अधिक नुकसान पहुंचाने वाली पेड न्यूज की कुप्रवृत्ति का सामने आना है। पेड न्यूज मतलब पैसा देकर प्रकाशित/प्रसारित कराई जाने वाली प्रचार सामग्री, जिसमें पाठक और दर्शक को यह तक न बताया जाए कि उक्त सामग्री खबर नहीं बल्कि विज्ञापन है। पेड न्यूज की शिकायतें पहले से रही थीं, लेकिन 2009 के आम चुनाव में यह भयावह रूप में सामने आईं। इसकी भयावहता को हरियाणा की एक घटना से समझा जा सकता है। उस समय राज्य में कांग्रेस की सरकार थी। तत्कालीन सरकार का नेतृत्व मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा कर रहे थे। चुनाव के दौरान कांग्रेस के विरोधी दल की रोहतक में एक छोटी सभा थी। उसकी खबर एक समाचार पत्र के पहले पृष्ठ पर छपी, जिसमें सभा में शामिल लोगों की संख्या अनेक गुना बढ़ाकर बताई गई थी। मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा ने समाचार पत्र के मालिक को फोन किया। रैली के संबंध में प्रकाशित खबर के बारे में बात की तो जवाब मिला कि वह विज्ञापन था। जिसने पैसा दिया, उसका मजमून छप गया। समाचार पत्र के मालिक का जवाब सुनकर हुड्डा सन्न रह गए। उन्होंने पूछा कि ‘पैसा देकर क्या कोई कुछ भी छपवा सकता है? जवाब मिला-बिल्कुल, सामग्री का जिम्मा उसी का होता है। मैंने कहा-कल के अंक में पहला पूरा पृष्ठ हमारे लिए बुक कीजिए और एक पंक्ति बड़े-बड़े हर्फों में हमारे खर्च पर छापिए कि यह समाचार पत्र झूठा है। छापेंगे न? समाचार पत्र के मालिक बोले-आप कैसी बात कर रहे हैं?’ पेड न्यूज नामक बीमारी के शुरुआती दौर में लगा था कि इक्के-दुक्के समाचार पत्र ही इसकी गिरफ्त में हैं। मगर धीरे-धीरे ऐसी शिकायतें आम हो चलीं। देखते-देखते पेड न्यूज का सिलसिला एक ओढ़ी जाने वाली बीमारी की तरह अधिकांश समाचार पत्रों और टीवी न्यूज चैनलों को घेरता चला गया। कुछ संपादकों और पत्रकारों ने इसके खिलाफ अभियान चलाया। प्रेस परिषद से लेकर संसद की स्थायी समिति तक ने इसका अध्ययन किया। सभी ने पेड न्यूज को भारतीय लोकतंत्र और पत्रकारिता के लिए खतरनाक माना।
पेड न्यूज के मामले में प्रेस परिषद की जांच रिपोर्ट पर तत्कालीन यूपीए सरकार ने मंत्री समूह गठित किया था। समूह ने इस मसले पर विचार किया। इसके बावजूद समूह की सिफारिशों को अंतिम रूप नहीं दिया जा सका। इतना ही नहीं यह फैसला भी लिया गया था कि पेड न्यूज संबंधी मंत्री समूह को पुनर्गठित नहीं किया जाएगा। जब भी मुद्दे को आवश्यक समझा जाए, उपयुक्त मंत्रिमंडल समिति/मंत्रिमंडल के समक्ष रखा जाएगा। इस बात पर संसद की स्थायी समिति को बताया गया चूंकि मुद्दा संवेदनशील है और इस पर अंतर-मंत्रालयी परामर्श की जरूरत है, इसलिए मंत्रालय ने पेड न्यूज संबंधी समूह को पुनर्गठित करने के लिए मंत्रिमंडल सचिवालय से अनुरोध किया है। इस प्रकरण पर संसद की स्थायी समिति ने नाराजगी जाहिर करते हुए कहा, ‘सरकार इस महत्वपूर्ण नीति की पहल पर निर्णय लेने में हिचक रही है, क्योंकि इस संबंध में आम चुनाव 2009 में ध्यान में आई कमियों पर पीसीआई द्वारा नियुक्त समिति द्वारा जुलाई 2010 में की गई सिफारिशों पर निर्णय लेने में सरकार की विफलता उजागर हुई है। अतः समिति पुरजोर सिफारिश करती है कि मंत्रालय पीसीआई की रिपोर्ट पर शीघ्र कार्रवाई करे।’ असल में पत्रकारिता को लेकर जितने भी नियम-कानून बने हैं, उनको मीडिया घराने ठेंगा दिखाते रहे हैं। ऐसे में जरूरत इस बात की है कि इन घरानों पर कानून लागू किए जाएं। इसके लिए एक नियामक अधिकरण बने। यह संस्था बिना टालमटोल के मामलों में त्वरित फैसला ले। एक बात ध्यान रखी जाए कि नियामक अधिकरण की बात करते हुए हम मीडिया पर सरकारी हस्तक्षेप की वकालत नहीं कर रहे हैं। इसमें प्रिन्ट और इलेक्ट्रानिक मीडिया के प्रमुख लोगों को रखा जाए। उन्हें विषय वस्तु की जांच करने और गलती पर चेतावनी देने फिर कार्रवाई करने का अधिकार दिया जाए। प्रेस परिषद की शक्तियों में इजाफा किया जाए। राव इन्द्रजीत की अध्यक्षता वाली समिति ने प्रेस परिषद की सिफारिशों पर फैसला न लेने के लिए सरकार के प्रति नाराजगी जाहिर की थी। समिति ने प्रेस परिषद का पुनरुद्धार करने पर बल देते हुए मीडिया, विशेषकर मीडिया की आय के स्रोत को सूचना का अधिकार के अधीन एवं लोकपाल विधेयक के दायरे में लाने की बात कही थी। सबसे अहम बात यह कि पेड न्यूज के तहत होने वाले फिजूलखर्ची को रोकने के लिए आगामी आम चुनाव से पहले ठोस कदम उठाए जाएं। अगर इसका संज्ञान नहीं लिया गया तो अगले साल होने वाले आम चुनाव में इस बीमारी के और अधिक भयावक रूप लेने की आशंका है।
संसद की स्थायी समिति की सिफारिशों का भी वही हाल हुआ जैसा पहले प्रेस संबंधी बनी समितियों, आयोगों और वेज बोर्डों की सिफारिशों का हुआ था। लिहाजा समिति ने जो आशंका व्यक्त की थी उसका परिणाम 2014 के आम चुनाव में देखने को मिला। यह बात अलग है कि आशंका व्यक्त करने वाली समिति के अध्यक्ष राव इन्द्रजीत भी उसी दल की नाव पर सवार हो गए, जिस पर 2014 के चुनाव को खरीदने का आरोप लगा। यह आम चुनाव इसलिए भी यादगार रहेगा क्योंकि यह अब तक का सबसे महंगा चुनाव साबित हुआ। अरबों रुपए का वारा-न्यारा किया गया। पूरा चुनाव अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव की तरह लड़ा गया। जाहिर सी बात है कि पैसा भी उसी तरह से लगाया गया। दो साल पहले अमेरिका में हुए चुनाव पर 42,000 हजार करोड़ रुपए लगे थे, वहीं भारत के इस आम चुनाव पर अनुमानतः 31,950 करोड रुपये लगाए गए, जिसमें अकेले भाजपा ने ही 21,300 करोड़ रुपए खर्चे हैं। शेष राशि सभी दलों ने मिलकर खर्च की। करीब 3,350 करोड़ रुपए प्रिन्ट, इलेक्ट्रानिक और सोशल मीडिया पर न्योछावर किए गए। एक तरह से कारपोरेट और पीआर ने मिलकर चुनाव को कैप्चर कर लिया। भारतीय राजनीति में यह नया फेनोमिना था, जिसमें सब कुछ कारपोरेट और पीआर ने तय किया। यह फेनोमिना जहां भारतीय पत्रकारिता की कब्र खोदने का काम कर रहा है वहीं लोकतंत्र को तहस-नहस कर देगा। अभी तक लोकतंत्र में जनता की भूमिका अहम मानी जाती थी, लेकिन अब एमबीए डिग्रीधारी मैनेजर ही लोकतंत्र की नींव माने जा रहे हैं। राजनीतिक दल करोड़ों-अरबों रुपए देकर जनता का मूड बदलने के लिए उन्हें हायर कर रहे हैं। वे ऐसा मानते हैं कि ये मैनेजर जनता का मूड उनके पक्ष में कर देते हैं। लोकतंत्र की हत्या करने वाली इस परिपाटी पर शायद ही कहीं पत्रकारिता में सवाल उठें। ऐसी पत्रकारिता देखकर गणेश शंकर विद्यार्थी की पत्रकारीय नीति याद आती है। उन्होंने 1913 में साप्ताहिक पत्र ‘प्रताप’ निकाला था, जिसके पहले अंक में ‘प्रताप की नीति’ के बारे में बताते हुए लिखा था कि ‘मनुष्य की उन्नति भी सत्य की जीत के साथ बंधी है, इसलिए सत्य को दबाना हम महापाप समझेंगे और उसके प्रचार और प्रकाश को महापुण्य।…जिस दिन हमारी आत्मा ऐसी हो जाए कि हम अपने प्यारे आदर्श से डिग जावें, जान-बूझकर असत्य के पक्षपाती बनने की बेशर्मी करें और उदारता, स्वतन्त्रता और निष्पक्षता को छोड़ देने की भीरुता दिखावें, वह दिन हमारे जीवन का सबसे अभागा दिन होगा और हम चाहते हैं कि हमारी उस नैतिक मृत्यु के साथ ही साथ हमारे जीवन का अंत हो जाए।’ अगर गणेश शंकर विद्यार्थी की इस कसौटी पर आज की पत्रकारिता को कसा जाए तो शायद ही कोई समाचार पत्र और टीवी न्यूज चैनल खरा उतरे।
पिछले आम चुनाव में सत्ता में आने वाली नरेन्द्र मोदी सरकार के शुरुआती महीनों में भारतीय दूरसंचार नियामक आयोग (ट्राई) की मीडिया स्वामित्व व उससे जुड़े मसलों पर रिपोर्ट आई। आयोग ने खबरों के प्रकाशन और प्रसारण में स्वतंत्रता और बहुलता सुनिश्चित करने के लिए समाचार पत्रों और टीवी चैनलों में प्रवेश करने वाले राजनीतिक दलों और कारपोरेट घरानों पर पाबंदी लगाने की सिफारिश की। न्यूज मीडिया में शेयर बंटवारे के ढांचे, प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष हितों का खुलासा करने की बात कही। आंतरिक बहुलता से निपटने के लिए आयोग ने 2008 के एक सुझाव को दोहराते हुए कहा कि राजनीतिक, सरकारी अथवा धार्मिक इकाइयों एवं उनसे जुड़े लोगों को बाहर करना चाहिए। चौथा बिन्दु-मीडिया को कंपनियों के नियंत्रण से मुक्त रखना होगा। पांचवां-दूरदर्शन को स्वतंत्र और निष्पक्ष ढंग से प्रसारण करने के लिए स्वायत्त बनाना होगा। छठा-प्रिंट और टीवी मीडिया के लिए एक ही स्वतंत्र नियामक (इसमें अधिकतर मीडिया जगत से बाहर के प्रमुख लोगों को रखना) की स्थापना करना, जिसे पेड न्यूज व निजी समझौतों के आधार पर खबरों के प्रकाशन व संपादकीय स्वतंत्रता से जुड़े मुद्दों की जांच करने और जुर्माना लगाने का अधिकार देने की सिफारिश की है। इस स्वतंत्र नियामक को पेड न्यूज पर सभी पक्षों की जिम्मेदारी तय करने की बात कही गई है। सातवां बिन्दु संपादकीय मंडल में निजी समझौते, पेड न्यूज या विज्ञापन से जुड़े किसी भी हस्तक्षेप पर प्रतिबंध लगाना है तो आठवां बिन्दु-राजनीतिक दलों, धार्मिक संस्थाओं, सार्वजनिक धन से चलने वाली संस्थाओं व उनकी सहायक एजेंसियों को प्रसारण और टीवी चैनल वितरण क्षेत्र में आने से रोका जाना है। साथ ही अगर किसी संगठन को पहले से मंजूरी मिली है तो उसे बाहर निकलने का विकल्प भी रखना चाहिए। लेकिन जैसी आशंका थी, मोदी सरकार ने ठीक वैसा ही किया। सरकार ने आयोग की रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में डाल दिया। सरकार के पास इसके सिवा दूसरा विकल्प भी नहीं था, क्योंकि जिन लोगों (कारपोरेट, पीआर और मीडिया) ने सामूहिक रूप से मोदी को यहां तक पहुंचाने में अहम किरदार निभाया हो उन पर मोदी सरकार शिकंजा कसेगी, यह उम्मीद करना बेमानी है।
गांधी ने भारतीय स्वतन्त्रता आंदोलन को दिशा देने का काम किया। जीवन के अंतिम समय तक राजनीतिक और सामाजिक काम किए। सत्याग्रह, जुलूस से लेकर आंदोलनों का नेतृत्व किया। इसके बावजूद उन्होंने अपनी पत्रकारिता को कभी किसी व्यक्ति विशेष अथवा संगठन का मोहरा नहीं बनाया। वह अपने लिखे एक-एक शब्द पर मनन करते थे। उसके सकारात्मक और नकारात्मक परिणाम के बारे में सोचते थे। सच की कसौटी पर खरा उतरने वाली भाषा का इस्तेमाल करते थे। इसके साथ ही वह पाठकों को यह अधिकार देते थे कि वे समाचार पत्र पर नजर रखें कि कहीं कोई अनुचित और झूठी खबर तो नहीं छपी है। अविवेकपूर्ण भाषा का इस्तेमाल तो नहीं हुआ है। उन्होंने यहां तक लिखा है कि ‘संपादक पर पाठकों का चाबुक रहना ही चाहिए, जिसका उपयोग संपादक के बिगड़ने पर हो।’ ऐसा लिखते हुए गांधी एक तरह से पत्रकारिता को चोट पहुंचाने वालों को शक की नजर से देखने की वकालत करते थे। शक करने वाली उनकी सीख का मायने आज कहीं अधिक है। मौजूदा समय के जनसंचार माध्यमों में जिस तरह से खबरों के प्रकाशन और प्रसारण में पक्षपात किया जा रहा है उसे देखते हुए पाठकों और दर्शकों को हर खबर को शक की नजर से देखना होगा। उन पर आंख मूंदकर भरोसा करने के बजाय उसके आगे और पीछे के बारे में सोचना होगा। पत्रकारिता ने तथ्यों को क्रॉस चेक करने वाला सिद्धांत लगभग बिसरा दिया है, लेकिन लोगों को ये जिम्मेदारी उठानी होगी कि वे पत्रकारिता में पेश किए जा रहे तथ्यों को क्रॉस चेक करें। तत्पश्चात अपनी राय बनाएं। अगर ऐसा नहीं करेंगे तो उनमें और एक अशिक्षित व्यक्ति में किसी तरह का अंतर नहीं रहेगा। ऐसी स्थिति में आप वही भाषा बोलेंगे जो समाचार पत्र बोलता है और टीवी बोलता है।
संदर्भ