A Weekend Story
September 8, 2016Rumblings from the Rubble
September 8, 2016Masto
इस ज़िदगी के मंच में मैं अभिनेता ठीक-ठाक हूँ, बस जिस किरदार में हूँ उसमें मेरे सिर पर एक हैट है और मेरी हैट मेरे सिर से बड़ी है.
यह बड़ी मुश्किल है, उसे उतारता तो अपने किरदार से बाहर जाता हूँ, और पहन कर किरदार निभाना खासा मुश्किल, पर क्या किया जाए ? कोई और सूरत भी नहीं..
काश ! मेरी स्क्रिप्ट लिखने वाले ने आगे के पन्नों में मेरे किरदार में कुछ तब्दीली की हो कि मैं इस हैट से मुक्त हो पाऊं क्योकि सिर तो अब बड़ा होने से रहा है…
कभी-कभी जब उकता जाता हूँ तो अपनी स्क्रिप्ट से बाहर आ जाता हूँ और लेखक निर्देशक को नाराज़ करता हुआ इम्प्रोवाइज़ेशन शुरू कर देता हूँ, हैट किनारे रख सहजता से जीने की कोशिश करता हूँ …पर असल में खुद को छल रहा होता हूँ, क्योंकि तब मैं सहज नहीं और ज्यादा एक्टिंग करने लगता हूँ क्योकि भीतर डर बहुत है, यह डर कि मेरी स्क्रिप्ट न छूट जाए, मैं इम्प्रोवाइज़ करता हुआ बहुत दूर न चला जाऊं..कि फिर समझ में न आये मैं वापस कहानी पर कैसे आऊंगा… डर ही मुझसे सब करवा रहा है…
इस इम्प्रोवाइजेशन में..लेखक निर्देशक मुझसे कम नहीं डरे होते, मगर दर्शकों को बड़ा स्वाद, बड़ा रस आता है….उन्हें कई दफे यह भ्रम होने लगता है कि मैं कोई महान अभिनेता हूँ और वे चलते शो के दौरान तालियाँ बजाने लागतें हैं..
सच वह लम्हा बेहद खूबसूरत होता है, आप ऐसा सोच सकतें हैं कि लोग तारीफ करेंगे तो किसे खूबसूरत नहीं लगता, किसे अच्छा नहीं लगता, मेरा दोस्त कालिदास भी कहता है,”प्रशंसा किसे नहीं भाती…” पर सच बात यह है ही नहीं …बिलकुल सच कह रहा हूँ, मेरे भीतर यह बात नहीं होती…चलते शो के दौरान जब लोग तालियाँ बजाने लगते हैं तब मैं रुक जाता हूँ…ठहर जाता हूँ…
थम जाता हूँ मेरा वो होल्ड,…पॉज़ में तब्दील हो जाता है और यह विराम मुझे पूर्ण चैतन्य यानी पूरे होश से भर देता है, कोई योगी समाधि के दौरान जिस एहसास से गुज़रे, होश से भर जाए, कुछ-कुछ वैसा, कुछ सेकेण्ड के लिए मुझे ऐसा ही लगता है, इस पूरी दुनिया की हर वस्तु जो मेरे
दर्शक हैं मैं उनसे जुड़ गया हूँ…यह अद्भुत महान क्षण होता है…
पर थोड़े वक़्त में यह सुरूर, खुमार में तब्दील होने लगता है और मैं धीरे-धीरे वापस अपनी स्क्रिप्ट पे आ जाता हूँ और, मैं और मेरी हैट, मेरी सहजता-असहजता समेटे नाटक को आगे बढाने लगते हैं..