Rumblings from the Rubble
September 8, 2016साहिर लुधियानवी का एक दुर्लभ इंटरव्यू
September 8, 2016Saurabh Srivastav
रानीखेत से कुछ दूर जंगलों से गुजरते हुए इस बात का अहसास हुआ कि जंगल कितना भी घना क्यों न हो एक पतली सी पगडंडी जरूर दिखती है। मनुष्य के चलने से बनी इस रेखा पर कहीं-कहीं घास की कालीन चढ़ आई है। लेकिन घास के नीचे पगडंडी के होने का अहसास बना रहता है। लगभग उसी तरह जैसे सूरज के उगने से कुछ देर पहले उसकी रोशनी रात को पीछे धकेलने लगती है। पगडंडी
का होना सन्नाटे के भय को कुछ कम भी करता है। इस भरोसे के साथ कि यहां से कभी कोई व्यक्ति गुजरा होगा और अपने जितनी जगह पीछे छोड़ गया होगा। उसी जगह में आज हम चल रहे हैं। हमारे पीछे छूट गई जगहें कल किसी और को रास्ता दिखाएगीं।
धूल से सने कपड़े उतार कर, घर के साफ-सुथरे और आरामदेह कपड़े पहनने और घर वालों के तमाम सवालों के जवाब देने के बाद मैं यात्रा के पूरे हो चुकने के बोध को अपनाने का कोशिश करता हूं। लेकिन यह पूरा होने का बोध हर यात्रा के बाद और अधूरा हो जाता है। उसका अक्स थिरे हुए आत्म पर बना रहता है पर ज्यादा देर तक स्थिर नहीं रहता। अतीत से यादों की कोई मछली उस रुके हुए पानी की सतह के नीचे से तैर जाती है। मैं स्मृतियो से ध्यान हटाने की विफल कोशिश करता हूं। थोड़ी देर बाद न चाहते हुए भी धागे का यह सिरा अपने आपको सुई के छेद में पिरो लेता है और यात्रा फिर से शुरू हो जाती है। वह मंथर गति से किसी इंस्ट्रूमेंटल संगीत के कैसेट की तरह बैकड्रॉप में बजती रहती है। यात्रा मेरी स्मृतियों में लगातार चलती रहती है।
पैर हवा में हैं। पहाड़ से निकली एक चट्टान पर बैठा हूं। सूरज के होने का अहसास भर है। बादलों के आते ही हवा सर्द लगने लगती है। दूर जंगलों के बीच से उठती धुएं की पतली सी लकीर बार-बार आसमान की ओर बढ़ती है। हवा उसे अपने साथ बहा ले जाती है। यह लकीर किसी घर के होने का अहसास करवाती है। शाम हो रही है। घर में कुछ पक रहा होगा। रात का खाना। पहाड़ पर रातें जल्दी शुरू हो जाती हैं। या यूं कहें कि पहाड़ पर लोग अंधेरा होने के साथ ही रात को स्वीकार लेते हैं। शहरों की तरह नहीं, जहां दफ्तरों में और घर के किसी कोने वाले
कमरे में सूरज के टुकड़े पूरी रात जलते रहते हैं और पौ फटने पर पर्दे खींच कर रात बुला ली जाती है। धुएं की लकीर बनाने वाले घर पास से देखने पर बहुत सादे लगते हैं। छोटे होने के बावजूद इनमें अंदर काफी जगह होती है। जीने के लिए न्यूनतम संसाधनों के कारण इनमें मनुष्यता के लिए काफी स्पेस होता है। इन घरों में विकसित मनुष्य अपने न्यूनतम और प्रकृति अधिकतम रूप में मौजूद है।
पहाड़ के किसी निर्जन कोने पर टिका हुआ मंदिर हमेशा से मुझे आकर्षित करता है। जिज्ञासा इस बात की नहीं होती है कि अंदर कौन सी मूरत होगी, बल्कि इसकी कि इतने साज-ओ-सामान के साथ वहां तक कोई कैसे पहुंचा होगा और अब मैं कैसे पहुंचूंगा? मैं हमेशा से इस अनुभव को महसूस करना चाहता था कि किसी मंदिर या चर्च के कॉरिडोर से पहाड़ कैसे दिखते हैं? (मस्जिदें दिखती नहीं) किसी राजनीतिक नजरिये के लिए नहीं (वह तो पहाड़ शुरू होते ही कहीं पीछे छूट जाता है) शांति और अपने आप से बातचीत के लिए। पहाड़ की शांति से वहीं बने किसी मंदिर या गिरिजाघर की शांति अलग होती। मंदिर में रहने वाला अकेला पुजारी कहीं गया हो तो भी हर पल इस बात
का खटका लगा रहता है कि अभी कोई आएगा और टोक देगा। यह अदृश्य सा अनुशासन खुद से जुड़ने की प्रक्रिया को क्षरित करने लगता है। थोड़ी देर तक इस अंजाने से डर के साथ वहां बैठ भी गए तो समूचा आत्मचिंतन खत्म होने की दिशा में बढ़ने लगता है। जंगलों का सन्नाटा इससे अलग है। वहां भटक जाने का या किसी जानवर के शिकार हो जाने का भय तो होता है पर आत्म पर किसी तरह का दबाव नहीं होता। वहां आप आसानी से खुद में खो सकते हैं और घंटों खोए रह सकते हैं। असल में इन दोनों सन्नाटों के बीच जो चीज अंतर पैदा करती है वह है ईंट और सीमेंट की वह इमारत जो मंदिर का होना साकार करती है। साथ ही वे नियम जो इस इमारत के लिए बनाए गए हैं। …सिर्फ इमारत के लिए।
Note: Photos taken by the author