अभी कुछ लोग उर्दू बोलते हैं
September 8, 2015प्रदीप कपूर साहब के स्टेटस से पता चला कि मुन्ने बख्शी नहीं रहे. तस्वीरों की नाज़ बरदारी में उम्र गुज़ारने वाले मुन्ने बख्शी खुद एक तस्वीर की मानिंद ज़हन पर नक्श हो गए. मेरे उनसे कुरबत के मरासिम बिल्कुल नहीं थे. मै उन्हे जानता भी बेहद कम था. कुल जमा दो ढाई मुलाकातें ही थीं उनसे. लेकिन अभी जब प्रदीप साहब का स्टेटस पढ़ा दिल मह्वे यास हो गया. इसलिए कि उन ढाई मुलाकातों में ही मै मुन्ने भाई की शफकत का इस दरजा कर्ज़दार हो गया था कि इसका सूद तक कभी नहीं चुका पाया. और अब जबकि वे दुनिया-ए-फानी से कूच कर गए हैं, मेरे लिए ये कर्ज़े-शफकत चुका पाना ना-मुमकिन हो गया है.
मुन्ने भाई से मुलाकात से पहले उनका नाम सिर्फ दो बार सुना था. पहली बार मुनव्वर राना ने किसी सिलसिले में उनका ज़िक्र किया था. शायद अमीनाबाद में चौधरी शर्फुद्दीन साहब के यहां होने वाली आम की दावत के बारे में बताते हुए. और दूसरी बार और ज्यादा तवज्जो के साथ उनका नाम तब सुना जब अमीनाबाद में नाज़ सिनेमा के सामने सर्वर के होटल पर किसी ना-आश्ना आदमी ने मुझे परेशान देखकर मुझसे कहा था कि आपकी मुश्किल का हल मुन्ने बख्शी के पास ज़रूर मिल जाएगा. और अगर मुन्ने के पास न मिला तो पूरे लखनऊ में किसी के पास नहीं मिलेगा.
मुश्किल ये थी कि तहलका हिन्दी के एक शुमारे के लिए मुझे मौलाना अली मियां नदवी की एक अच्छी तस्वीर की ज़रूरत थी जो कि रिसाले में छपनी थी. बदकिस्मती से इंटरनेट पर मौलाना की कोई भी अच्छी तस्वीर हाई रिज़ोल्यूशन में मौजूद नहीं थी. हमारे कारसाज़ फोटोग्राफर प्रमोद अधिकारी जिन्हे फोटो का इंतज़ाम करने में महारत हासिल है वे भी लाचार नज़र आ रहे थे. नदवे से मुन्सलिक कुछ हज़रात से जब इस बाबत मदद मांगी तो उन्होने भी ये उज्र देते हुए हाथ खड़े कर दिए कि मौलाना फोटो नहीं खिंचवाते थे. एक तो नदवे के लोगों के पास भी मौलाना की फोटो नहीं और उस पर ये पिछड़ा हुआ जुमला. मेरा दिमाग ख़राब हो गया था. एक साहब से तो मैने गुस्से में कह भी दिया- मौलाना पूरी दुनिया घूमते थे, उनका पास-पोर्ट बिन फोटो का था क्या ? इससे किसी हद तक मेरे मन की भड़ास तो निकली लेकिन मेरी मुश्किल का कोई हल नहीं निकला. उधर डेडलाइन अपना खूनी पंजा लिए मेरे पास आती ही जा रही थी.
सहाफी का दिमाग खराब होता है तो उसे चाय की तलब लगती है.मैने भी सर्वर भाई के यहां पहुंच कर चाय का आर्डर दिया. वहां चाय भी उबल रही थी और मै भी. ऐसा लगता था कि दोनो अपने ज़र्फ से बाहर आ जाएंगें. सर्वर मियां ने पूछा- और कहिए, सब खैरियत ? मैने कहा- अली मियां की तस्वीर नहीं मिल रही उसी में लगे हैं. इतने में वहां मौजूद एक साहब ने कहा कि आपकी मुश्किल का हल मुन्ने बख्शी के पास ज़रूर मिल जाएगा. और अगर मुन्ने के पास न मिला तो पूरे लखनऊ में किसी के पास नहीं मिलेगा. मेरा उन साहब से कोई तआरूफ नहीं था. उनसे मुन्ने बख्शी का पता पूछकर और उनका शुक्रिया अदा करके मै मंज़िल की तलाश में निकल पड़ा. याद आया कि मुन्ने बख्शी शायद मुनव्वर राना के जानने वाले हैं, और अली मियां पर तहलका में आलेख मुनव्वर राना ही लिख रहे हैं इसलिए सोचा राना साहब से फोन करवा दूं. फिर लगा कि पहले अपने आप कोशिश कर के देख लूं. अगर मुन्ने बख्शी तस्वीर देने में आना-कानी करेंगे तो फोन करवा दूंगा. लेकिन फिर ये भी डर लगा, कहीं ऐसा न हो कि फोन करवाने से या मुनव्वर राना का नाम लेने से दांव उल्टा पड़ जाए और मुन्ने बख्शी नाराज़ हो जाएं. आखिर पुराने आदमी हैं. मै उनसे कभी मिला तो था नहीं कि मुझे उनके मिज़ाज का अंदाज़ा हो. सो राना साहब के नाम को भूल कर अपने ऊपर भरोसा करना ही बेहतर समझा.
मुन्ने बख्शी की दुकान अमीनाबाद से लगे ‘कल्लन की लाट’ इलाके में थी. इस अजीबो-गरीब नाम वाले इलाके में कभी 1857 के गदर में मारे गए एक अंग्रेज़ कर्नल की कब्र थी जिस पर एक बहुत ऊंची लाट लगी हुई थी. सो इलाके का नाम पड़ा था ‘कर्नल की लाट’ जो कि बार में घिस घिस कर ‘कल्लन’ की लाट कहलाने लगा. पुराने लखनऊ का बाशिंदा होने की वजह से इन सारी बातों और इस इलाके से मेरी लड़कपन की आश्नाई थी लेकिन मुन्ने बख्शी की दुकान मुझे हरगिज़ नहीं पता थी. लोगों से पूछते-पाछते हुए जब मै उनकी दुकान पर पहुंचा तो दिल एक बार फिर ग़मज़दा हो गया. दुकान बंद थी. मै खीझकर वहीं बैठ गया. और काफी देर तक इसी तरह बैठा रहा. तकरीबन पन्द्रह मिनट बाद स्कूटी पर आए एक आदमी ने रूककर मुझसे पूछा कि मै वहां क्या कर रहा हूं. मैने उससे कहा कि इस दुकान के खुलने का इंतज़ार कर रहा हूं. उसने मुझसे कहा कि अभी खुलेगी. मुझे कुछ राहत ज़रूर पहुंची लेकिन इंतज़ार मुझे मुन्ने बख्शी का था उस स्कूटी वाले आदमी का नहीं. लेकिन जब उस आदमी ने स्कूटी से उतर कर दुकान के शटर में चाभी लगाई मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा. ये मुन्ने बख्शी ही थे. मैने उनसे पूछा आपकी दुकान में अली मियां नदवी की तस्वीर होगी ? मै बहुत परेशान हो गया हूं. मुन्ने बख्शी बोले- यहां सबकी फोटू होगी, हमाई खुद की छोड़कर. ज़रा सबर करो.
जब शटर उठा मै हैरान था. ऐसा लगता था दुकान कई दिन बाद खुली है. उस दुकान में हर चीज़ बेतरतीब थी. और पुरानी सी. कोई भी कम्प्यूटर नहीं था. न ही फोटो खींचने के स्टूडियो में आजकल होने वाले ताम झाम. लेकिन तस्वीरें वहां खूब थीं और क्या खूब थीं ! वहां फिल्मी सितारे और क्रिकेट खिलाड़ी नहीं थे. अदबी सितारे और सियासी खिलाड़ी थे. जितनी देर मुन्ने भाई दुकान का सामान ठीक करते रहे मै इन तस्वीरों को देखता रहा. मजाज़ की दो तस्वीरें लगी थीं. जिनपर मेरा ध्यान सबसे पहले गया. मैने मुन्ने भाई से पूछा ये मजाज़ हैं न ? मुन्ने भाई ने पूरी अना के साथ जवाब दिया- जी !!! चचा ने खींची थी. वहां जवानी के मुलायम सिंह भी थे और बुढ़ापे के उमर अंसारी भी. मजरूह और अटल बिहारी वाजपेयी की भी एक तस्वीर थी कहीं कविता पढ़ते हुए. कई ऐसी भी तस्वीरें थी जिन्हे मै पहचानने की कोशिश कर ही रहा था कि तभी मुन्ने बख्शी ने पूछा- मौलाना की तस्वीर नहीं मिली ?- मैने कहा- जी नहीं. मुन्ने भाई ने तंज़िया लहजे में कहा- रायबरेली (जहां के मौलाना रहने वाले थे) जा के ले लेते. गुस्सा तो बहुत आया कि मेरी हालत खराब है और ये आदमी तफरी ले रहा है. लेकिन अपना काम अटका था इसलिए चुपचाप सुन गया और कहा- जल्दी चाहिए मैगज़ीन छपनी है.
इसके बाद मुन्ने बख्शी ने संजीदा होकर पूछा- पहचानते हो मौलाना को ? मैने कहा- जी इंटरनेट पर छोटी छोटी तस्वीरें देखी हैं लेकिन सफेद दाढ़ी वाले सारे मौलाना एक से लगते हैं इसलिए हो सकता है कन्फ्यूज़ हो जाऊं. मुन्ने भाई बोले- मेरे पास तस्वीर नहीं है कोई उनकी. निगेटिव में शायद कहीं होंगे मौलाना. इस पूरे मजमे में एक एक निगेटिव देखना पड़ेगा. मै देखता हूं और तुम भी देखो. बहुत टेढ़ा काम लेकर आए हो. मैने कहा- कि आप एक अदद तस्वीर या निगेटिव ढूंढ दीजिए मौलाना की. जितनी पैसे बताएंगें दे दूंगा. इस पर वो बोले- पहले फोटू ढुंढवाओ तब आगे बात होगी. इसके बाद मै और मुन्ने भाई एक एक निगेटिव को ऊपर उठाकर उनमें मौलाना को ढूंढने में मुब्तेला हो गए. ये वाकई एक टेढ़ा काम था जैसा मुन्ने भाई ने कहा था. कल्बे सादिक, कल्बे जवाद, खालिद रशीद, अबुल इरफान, फज़लुररहमान, अज़हर फारूकी और इनके साथ ही न जाने कितने मौलाना और उलमा दिख गए निगेटिव में, कईयों के तो नाम तक मै नहीं जानता लेकिन अली मियां नहीं दिखे. मैने मुन्ने भाई को कहा- कि अब रहने दीजिए. नहीं मिलेगी. मौलाना फोटो नहीं खिंचाते होंगे शायद. मुन्ने भाई झल्ला के बोले- हम कह रहे हैं हमको छोड़के बाकी सब मिलेंगे. हमने खुद खींची है उनकी फोटू. हो गए तकरीबन बीस साल. मैने मन में कहा कि तब तो मिल चुकी फोटो. मैने हार कर तलाश बन्द कर दी थी. मुन्ने भाई जी-जान से लगे हुए थे. इस बीच बैठे-ठाले मैने उनसे पूछा- मुन्ने भाई ये बाबा आदम के ज़माने के निगेटिव क्यों रखे हुए हुए हैं, कम्प्यूटर ले लीजिए, इन सबको डेवलप और स्कैन करवा के उसमें डाल दीजिए. हमेशा के लिए महफूज़ हो जाएंगें. ढूंढने में भी आसानी रहेगी. मुन्ने भाई बोले- ये निगेटिव तुम जैसों के लिए बचा के रखे हैं. कम्प्यूटर फेल हो जाता है तो आदमी यहीं आता है. आराम से बैठे रहो, अभी सब मिलेगा. मुन्ने भाई मखसूस लखनवी अंदाज़ में निगेटिव ढूंढते रहे. ऐसा लग रहा था जैसे उन्हे इसमें लुत्फ आने लगा है….
कुछ देर बाद मुन्ने भाई अचानक बोल उट्ठे बोले- मिल गई. मेरी आंखें चमक गईं. मैने कहा- दिखाइए. मैने देर तक देखी और फिर मुन्ने भाई पर हंसते हुए कहा- ये तो राबे हसनी नदवी हैं, हमको अली मियां चाहिए. मुन्ने भाई झेंप गए. बोले अच्छा ! रूको राबे मिल गए अब अली मियां भी मिल जाएंगें. मै वहीं बैठा रहा . मुन्ने भाई निगेटिव में झांकते रहे. तकरीबन डेढ़ घंटे तक जूझने के बाद उनकी मेहनत रंग लाई. उन्होने कहा- लो ले जाओ. हमने कहा- दोबारा राबे हसनी तो नहीं पकड़ा रहे हैं बला टालने को. ग़लत फोटो छप गई तो मेरा काम लग जाएगा. मुन्ने भाई बोले- रायबरेली जा के पक्का कर लो. अली मियां ही हैं. मुन्ने बख्शी की बात सच थी. निगेटिव में अली मियां नदवी ही थे. मुन्ने भाई बोले- गोलागंज में रस्तोगी के यहां जाकर बनवा लो फोटो. दस रूपए से ज्यादा मत देना. न बनाए तो कहना मुन्ने बख्शी ने भेजा है. मैने पूछा मुन्ने भाई आपको कितने पैसे दे दूं- मुन्ने भाई बोले- कुछ नहीं. तुम जाके इसे रस्तोगी के यहां दे दो वरना दुकान बंद हो जाएगी. और छोड़ के मत आना हाथ के हाथ ले लेना. आधे घंटे का सब्र और कर लेना. मैने कहा मुन्ने भाई कुछ तो आप को लेना ही पड़ेगा. डेढ़ घंटे जूझने के बाद मिला है ये निगेटिव. मुन्ने भाई बोले- निगेटिव की कीमत इतनी कम है कि मै ले नहीं सकता. डेढ़ घंटे की कीमत इतनी ज्यादा है कि तुम दे नहीं सकते. अब चले जाओ बहुत तेजी में वरना वापस छीन लेंगे. निगेटिव. फिर ढूंढ़ते रहना मौलाना को. इसके बाद हमने शुक्रिया अदा किया और रस्तोगी कलर लैब गोलागंज जाकर फोटो डेवलप कराई.
अगले दिन मै निगेटिव वापस करने दोबारा मुन्ने भाई की दुकान पर पहुंचा. ये दूसरी मुलाकात थी. मैने मुन्ने भाई से कहा- पैसे तो आपने लिए नहीं, जब फोटो छपेगी मै उसपे आपका नाम दे दूंगा. मुन्ने बोले- तुम अपना नाम दे देना फोटो पर, हमको जितना नाम कमाना था कमा चुके. मै निगेटिव लौटाकर वहां से चला आया. अखिरकार तहलका में उस आलेख के साथ अली मियां की तस्वीर छपी. ये सिर्फ और सिर्फ मुन्ने भाई की वजह से हो पाया था. उस दिन अगर मुन्ने भाई न होते तो जाने मेरी क्या गत होती. वो मुझे बिल्कुल नहीं जानते थे, पहली बार ही मिले थे लेकिन फिर भी मेरे लिए घंटो जूझते रहे. मुझे मुसीबत से निकाला और बदले में कुछ नहीं लिया. पत्रकारिता को दलाली का गढ़ कहने वाले सुन रहे हैं ?
इस दिन के बाद मुन्ने बख्शी से सिर्फ आधी मुलाकात और हुई. पिछले साल जून में. चौधरी शर्फुद्दीन साहब के यहां आम की दावत थी. शहर के तमाम जाने पहचाने लोग आम का लुत्फ लेने में मश्गूल थे. लेकिन मुन्ने बख्शी तस्वीरें खीच रहे थे. मै लखनउआ सफेदा चूस रहा था कि मुन्ने भाई की निगाहें मुझसे टकराईं. मैने उनसे इशारे में आम खाने को कहा. उन्होने दूर से ही सर हिलाते हुए कहा- खाओ खाओ. फिर मै दोबारा आम खाने में जुट गया और वो फोटो खीचने में. इस दिन के बाद न उनसे कभी बात हुई न मुलाकात. हां एक बार रिफह आम क्लब के सामने मैने उन्हे स्कूटी पर कैमरा लिए कहीं जाते हुए देखा ज़रूर था. लेकिन हम दोनों एक दूसरे की मुखालिफ सिम्त जा रहे थे सो बहुत तेज़ी से निकल गए. रूकने का सवाल नहीं. मुन्ने भाई तो मुझे देख भी नहीं पाए थे.
इस तरह मेरी कुल जमा ढाई मुलाकाते ही रहीं मुन्ने भाई से लेकिन इनमें ही मुन्ने भाई मुझे यादों की हज़ार तस्वीरें दे गए. फिट लगते थे. इतनी जल्दी छोड़ जाएंगे सोचा भी नहीं था. सबकी तस्वीरें खींचने वाले मुन्ने भाई को अपनी तस्वीर से कुछ खास रगबत नहीं थी. इसलिए उनकी दुकान पर उनकी कोई तस्वीर भले ही न मिले, या अगर मिले भी तो हो सकता है कि फलक की गर्दिश उसके रंगों को हलका कर दे. लेकिन मेरे ज़हन पर मुन्ने भाई की जो तस्वीर छपी है वो कभी हलकी नहीं हो सकती. सूदो-ज़ियां के इस शोर के बीच मुझे आप जैसे कलंदर-सिफत बुज़ुर्गों की ज़रूरत है मुन्ने भाई. जो बड़ी से बड़ी मुश्किल को अपने खुलूस और सादगी के दम पर हल करने का हुनर रखते हैं. इस बार मुसीबत में फंसा तो किसके पास जाऊंगा. हम सबको आपकी ज़रूरत है. आपके लखनऊ को आपकी ज़रूरत है.
जितने हमप्याला थे उठते जा रहे हैं बज्म से, आखिरी कुछ घूँट अपने भर रहा है लखनऊ !बढ़ रहा है रोज बे आहंग आवाजों का शोर,आने वाली साअतो से डर रहा है लखनऊ !
– हिमांशु बाजपाई