बेवजह यात्रा: फुटकर यादें
September 8, 2016The Sense of an Ending
November 10, 2016फिल्मी और अदबी दोनो तरह की शायरी में मुहज़्ज़ब मकाम रखने वाले मशहूर शायर साहिर लुधियानवी से १९६८ में उर्दू के एक दूसरे बड़े शायर नरेश कुमार शाद ने एक लंबी गुफ्तगू की थी जिसे बाद में स्टार पाकेट बुक्स ने शाद और साहिर के मुश्तरका कलाम (संयुक्त काव्य) के साथ पेश किया था. साहिर लुधियानवी का अपनी तरह का ये अकेला इंटरव्यू है. क्योंकि साहिर के बारे में ये मशहूर है कि वो खुद को लेकर ज्यादा देर तक किसी से बात करना पसंद नहीं करते थे. कुछ दिनों पहले एक दोस्त की इनायत से दस्तयाब हुआ तो सोचा इसे यहां पेश कर दूं –
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“नए ज़माने के शायरों में जनाब साहिर लुधियानवी साहब एक ऊंची हैसियत रखते हैं | अहसास, शिद्दत और जज्बे की सच्चाई इन की शायरी के बुनियादी हिस्से हैं | इन के दो टूक और रोशन अंदाज़-ऐ-बयान ने इन की शायरी को एन नया रूप रंग और निखार बक्शा है | इन की पुर-खलूस शायरी आज के हिन्दुस्तानी नौजवान के ज़हनी उतार-चढाव की कहानी है | अपने महबूब शायर ‘फैज़-अहमद-फैज़’ की तरह साहिर ज़हनी तौर पर एक इन्क़लाबी और रूमानी शायर हैं, इसीलिए इनके इश्क का जज्बा एक इंकेलाबी जज्बा है”
नरेश कुमार ‘शाद‘
शाद : आप की पैदाइश कब और कहाँ की है ?
साहिर : “मैं कब और कहाँ पैदा हुआ ?” मेरे इस सवाल को दांतों और होठों के दरम्यान दोहराते हुए, हंस के कहने लगे, “मेरे प्यारे दोस्त, ये तो बड़ा ही रवायती सवाल है, इस सवाल को थोडा आगे बढ़ाते हुए इस में थोडा इज़ाफा और कर लो, ‘के क्यों पैदा हुआ’ ?”
मैंने जान बूझ के अपने आपको शांत और उनके जवाब से बे-असर रखते हुए पुछा | “आपकी खुश-मजाज़ी दुरुस्त है, लेकिन साहिर साहब, इस का सहारा लेते हए आप हम गरीब interview लेने वालों का मज़ाक कैसे उड़ा सकते हो ?”
साहिर मन-ही-मन में मुस्कुराते और cigarette का पैकेट मेरी तरफ करते हुए बोले, “सन १९२१ में लुधियाने में”
मुझे कुछ तसल्ली हुई और मैंने cigarette के पैकेट से एक cigarette निकालते हुए कहा, “आपकी तालीम कहाँ से और कहाँ तक हुई है?”
“B.A. नहीं कर पाया, Govt. कॉलेज लुधियाना और दयाल सिंह कॉलेज दोनों से निकाला गया था |”, ऐसा कहने से मानो साहिर के लहज़े में जैसे फक्र और खुद-यकीनी की लहर दौड़ गयी |
“..अब इन कॉलेजों को मुझ पर नाज़ है की मैं इन कॉलेजों का तालिब-ऐ-इल्म रहा, लेकिन मुझे वहां से निकाले जाने का अफ़सोस किसी को नहीं है |”
इस ज़िक्र पर मुझे साहिर साहब की वो ‘नज़र ऐ-कॉलेज‘ याद आ गयी:
ऐ सरज़मीन-ए-पाक़ के यारां-ए-नेक नाम
बा-सद-खलूस शायर-ए-आवारा का सलाम
ऐ वादी-ए-जमील मेंरे दिल की धडकनें
आदाब कह रही हैं तेरी बारगाह में
तू आज भी है मेरे लिए जन्नत-ए-ख़याल
हैं तुझ में दफन मेरी जवानी के चार साल
कुम्हलाये हैं यहाँ पे मेरी ज़िन्दगी के फूल
इन रास्तों में दफन हैं मेरी ख़ुशी के फूल
तेरी नवाजिशों को भुलाया न जाएगा
माजी का नक्श दिल से मिटाया न जाएगा
तेरी नशात खैज़-फ़ज़ा-ए-जवान की खैर
गुल हाय रंग-ओ-बू के हसीं कारवाँ की खैर
दौर-ए-खिजां में भी तेरी कलियाँ खिली रहे
ता-हश्र ये हसीं फज़ाएँ बसी रहे
हम एक ख़ार थे जो चमन से निकल गए
नंग-ए-वतन थे खुद ही वतन से निकल गए
गाये हैं फ़ज़ा में वफाओं के राग भी
नगमात आतिशें भी बिखेरी है आग भी
सरकश बने हैं गीत बगावत के गाये हैं
बरसों नए निजाम के नक्शे बनाए हैं
नगमा नशात-रूह का गाया है बारहा
गीतों में आंसूओं को छुपाया है बारहा
मासूमियों के जुर्म में बदनाम भी हुए
तेरे तुफैल मोरिद-ए-इलज़ाम भी हुए
इस सरज़मीन पे आज हम इक बार ही सही
दुनिया हमारे नाम से बेज़ार ही सही
लेकिन हम इन फ़ज़ाओं के पाले हुए तो हैं
गर यां नहीं तो यां से निकाले हुए तो हैं !
“अच्छा, अब आप ये बताएं के आप अब्दुल हई से साहिर लुधियानवी कब बने?”
“१९३५ में दसवीं के इम्तेहान के बाद और नतीजा निकलने से पहले, जब में बिलकुल बेकार था |”
“आपका सबसे पहला शेर कौन सा था ?”
“याद नहीं, शायद याद रखने जैसा भी नहीं है”
“आपने अपनी शायरी के शुरूआती दिनों में किस से इस्लाह ली ?”
“किसी से नहीं ?”, फिर अचानक शायद साहिर साहब को कुछ याद आ गया, और कहने लगे, ” हाँ, ऐसा ज़रूर हुआ है के मैं अपनी सब से पहले नज़्म इक दोस्त के ज़रिये अपने स्कूल के teacher ‘फैयाज़’ हरियान्वी से उनकी राय जानने के लिए भेजी थी | ”
“तो उन्होंने क्या राय दी ?”
“यही के शेर अच्छे और वक़्त के मुत्तालिक हैं, पर पूरे तौर पर नज़्म मामूली है |” इतना कहने पर साहिर ने अपने ख़ास और बड़े दिलकश अंदाज़ में कहा, “ज़ाहिर है के उस वक़्त मेरे लिए इतना ही काफी था के मेरे शेर उम्दा और contemporary हैं |”
“आपने अपना तखल्लुस ‘साहिर‘ ही क्यों इंतेखाब किया ?”
कुर्सी से उठकर साहिर साहब कमरे में यहाँ वहां टहलने लगे और बोले, “क्योंकि कोई न कोई तखल्लुस रखने का रिवाज़ था, इसलिए मैं अपनी स्कूल की किताबों के वर्क उलट-पलट कर उस मौजूं लफ्ज़ की तलाश में था जिसे में अपना तखल्लुस मुक़र्रर कर सकूं | अचानक मेरी नज़र एक शेअर पर पड़ी जो इक मर्सिये का था जिसे ‘इकबाल’ ने ‘दाग़’ के लिए जो लिखा था |
इस चमन में होंगे पैदा, बुलबुल-ऐ-शीराज़ भी
सैंकड़ों साहिर भी होंगे, साहिब-ऐ-एजाज़ भी |
मुझे अपनी शायरी को लेकर कभी कोई गलत-फहमी नहीं रही और में भी अपने आप को सैंकड़ों शायरों में से एक शुमार करता हूँ | इसलिए अपने लिए मुझे ‘साहिर’ तखल्लुस मुनासिब लगा | ”
“शुरू-२ में आप किन-२ शायरों से मुतास्सिर रहे ?”
“इकबाल और जोश मलीहाबादी से |”
“अब अगर में ये पूछूं के आप शेर कियों कहते हो ?”
साहिर ने बड़ी हैरानी से मेरी तरफ देखा (लेकिन न जाने क्यों मुझे लगा के वो मेरी तरफ नहीं देख रहे हैं बल्कि अपने लम्बे नोकीले नाक से मुझे सूंघ रहे हैं ) | एक बार फिर कुर्सी पर बैठते हुए बोले, “मेरी राय में हर शक्स का जो पेशा होता है उस में उसके शौक़ और ज़रुरत शामिल होते हैं, कभी शौक़ पहले तो कभी ज़रुरत | सियासी (political) और मजाजी (social) मसलों से तआल्लुक का सवाल बाद में पैदा होता है | वतन परस्ती और फ़र्ज़ के बाद मुझे अपनी ज़िन्दगी का एक हिस्सा ज़िन्दगी की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए फ़िल्मी शायरी की नज़र करना पड़ा | इसके साथ-२ ज़िन्दगी के कई अच्छे-बुरे हादसों की याद को महफूज़ रखने के लिए भी मेरा दीमाग शायरी करने को मजबूर हो जाता है | ”
ये सुन कर मुझे उनका एक और शेर याद आ गया :-
दुनिया ने तजुर्बात-ओ-हवादिस की शक्ल में
जो कुछ मुझे दिया है, वो लौटा रहा हूँ मैं ||
“आप शेर कहते किस तरह हैं ?’
इस के जवाब में साहिर अपने चेचक भरे चेहरे को सहलाते हुए बोले, “कई बार, कोई ज़ाती हादसा या आवामी मामला दीमाग पर इस तरह हावी हो जाता है की शेर के बगैर उसकी तेहलील (analysis) मुमकिन नहीं होती | उस वक़्त किसी ख़ास माहौल की भी ज़रुरत नहीं होती |
ऐसी हालत में कोई चीज़ रुकावट नहीं डालती, अलबत्ता फ़िल्मी गाना लिखने के लिए दरवाज़ा बंद करके, कमरे में टहल-२ कर और शऊरी तौर पर अपने आप को गीत के अहसास के दरमयान रख कर, माहौल और किरदार की नफ्सियाती (psychological) कैफिअत को सांचे में ढाल कर शेर कहता हूँ, गीत लिखता हूँ |”
“अच्छे शेर की आपके मुताबिक क्या तारीफ़ है ?”
“ख़ूबसूरत, सच्चा और फायदेमंद होना चाहिए |”
“क्या आप ‘इल्म-ऐ-अरूज़‘ (knowledge of meter, बहर का इल्म ) से वाकिफ हैं और क्या इस की सूझ-बूझ शायरी के लिए ज़रूरी है ?”
“मैं खुद ‘इल्म-ऐ-अरूज़’ से न-वाक़िफ हूँ, ऐसी हालत में, मैं अरूज़ का जानना ज़रूरी कैसे समझ सकता हूँ | लेकिन ये ज़रूर कहूँगा के अगर एक अच्छा शायर अरूज़ से वाक़िफ हो तो ये उसकी शायरी के लिए ज्यादा अच्छा है |”
“आपकी ज़िन्दगी का कोई ऐसा वाकिया, जिसने आप की शायरी पर गैर-मामूली असर डाला हो “
“बहुत से छोटे-बड़े वाकिये हैं, किसी खास वाकिये का इंतेखाब न-मुमकिन है ”
“आप इस सदी का सबसे बड़ा शायर किसे मानते हैं ?”
“नज़रयाती इख्तेलाफ़ (मतभेद, disagreement) के बावजूद ‘इकबाल’ को ”
“उर्दू के मौजूदा (समकालीन, contemporary) शायरों में से आप को ख़ास तौर पर कौन सा शायर पसंद है ?”
“मुश्किल ये है, के हमारे ज़माने के शायरों में से ज़ाती पसंद को अलेहदा (separate) करने की बुनियाद क्या हो ? मेरे ख्याल से फनकार की शायरी के इलावा उसकी शख्सियत उसे दूसरों से अलग करती है | फिर भी मुझे ‘फैज़ अहमद फैज़’ सब से ज्यादा पसंद हैं |
“उर्दू के जदीद (modern) शायरों में से क्या कोई शायर ज़िक्र करने लायक है ?”
“नरेश कुमार शाद |”
साहिर ने संजीदगी के साथ जवाब दिया, मैंने हँसते हुए कहा:-
“हौसला-अफज़ाई के लिए शुक्रिया, पर ज़रा और संजीदगी के साथ बताईये | मेरा मतलब है के थोडा साफगोई से काम लीजिये और किसी की हक़-तलफी नहीं होनी चाहिए |”
साहिर ने अपनी लम्बी-२ अँगुलियों को लहराते हुए कहा :-
“मैं अपनी राय पहले भी ज़ाहिर कर चूका हूँ, सबूत की ज़रुरत हो तो कुंवर महिंदर सिंह बेदी से पूछ लो |”
अपने ज़िक्र को जान बूझ के बीच में ही छोड़ते हुए मैंने दूसरा सवाल पुछा:-
“अभी तक, आपकी अपनी नज्मों में से, सबसे पसंदीदा नज़्म कौन सी है ?”
साहिर ने सिगरेट का एक लम्बा कश लेते हुए कहा, “अलग-२ वक़्त पर, अलग-२ नज्में पसंद रही हैं”
“मिसाल के तौर पर इस वक़्त कौन सी नज़्म ?”
“पर्छाइयाँ “, साहिर ने कुछ सोचते हुए जवाब दिया |
“शेर और शराब का क्या रिश्ता है ? क्या शराब शायर के लिए ज़रूरी है ?”
“हरगिज़ नहीं, शेर कहने के लिए नशे की कोई ज़रुरत नहीं | नशे की हालत में आम तौर पर अच्छा शेर कहा ही नहीं जा सकता |”
“फिर आप शराब क्यों पीते हो ?”
“मैं तो बू-शर्ट भी पहनता हूँ, हालांकि बू-शर्ट पहनना शायर के लिए ज़रूरी नहीं |”
“शायरी की बात छोडिये, आपके शराब पीने की वजह क्या है ?”
“मैं शराब नहीं पीता था, जब शराब बंदी हुई थी तब भी नहीं | बाद में low blood pressure की वजह से मुझे तकरीबन ३-४ साल शराब पीनी पड़ी, जिस से मुझे बहुत फायेदा भी हुआ | अब मैं इसका आदी हो गया हूँ और रात को शराब पिए बगैर अच्छी नींद भी नहीं आती | ”
“शायरी के साथ-२ आप अदब के किस-२ रूप में दिलचस्पी रखते हैं ?”
“पढने की हद तक अदब के हर रंग को पसंद करता हूँ लेकिन,…”
साहिर ने अपनी अंगुलियाँ बालों में फिराते हुए कहा:
“.. मैंने शुरूआती दिनों में कुछ कहानियाँ भी लिखीं थीं और बाद में कुछ तन्कीदी मज़मून भी |”
“क्या हमारा मौजूद अदब वाकई जमूद (inaction, inertia) का शिकार है ?”
“जमूद हरक़त की ज़िद है | अदब में हरक़त तो है, बहुत कुछ लिखा भी जा रहा है, ये बात अलेहदा है के वो उस कैफियत और सिफत (quality) का नहीं है |”
“आपका सियासी नज़रिया क्या है ?”
“मैं कभी किसी सियासी पार्टी का मैम्बर नहीं रहा | गुलाम हिंदुस्तान में आज़ादी के अच्छे पहलू तलाश करना और उनको आवाम तक पहूंचना मेरा अहम् काम ज़रूर रहा | अब दिमागी तौर पर इक्तेसादी (economical) आज़ादी का हामी बेशक हूँ, जिसका वाजेह (clear-cut) ढांचा मेरे सामने कौम्मुनिज्म (communism) है | ”
“आपके ख्याल के मुताबिक, हिंदुस्तान में उर्दू का मुस्तकबिल (future) क्या है ?”
साहिर ने हिकमत (diplomatically) भरा अंदाज़ इख्तेयार करते हुए कहा, “उर्दू ज़बान के मुस्तकबिल को हिंदुस्तान के मुस्तकबिल से अलग नहीं किया जा सकता | हिंदुस्तान एक तरक्की पसंद मुल्क है और उर्दू जुबां एक तरक्की-याफ्ता जुबां | इसलिए उर्दू का वही मुस्तकबिल है जो हिंदुस्तान का | जिस रफ़्तार से तअस्सुब (prejudice) और तंग-नज़री में कमी आएगी, उसी रफ़्तार से मुल्क और उर्दू आगे बढेंगे | ”
“अब तरक्की-पसंद अदब की तहरीक के बारे में कुछ फरमाईये ?”
“मैं समझता हूँ के तरक्की-पसंद तहरीक ने अदब और मुल्क की बहुत खिदमत की है, पर इस से इनकार नहीं किया जा सकता के इस से कुछ गलतियाँ भी हुई हैं, लेकिन जो लोग इस की सिर्फ ख़ामियां ही गिनाते हैं में उन से इतेफाक़ नहीं रखता | ”
“लेकिन ये तो आप भी मानते हो के इस का शीराज़ बिखर चूका है ?”
“जी हाँ, इस की management अब कायम नहीं “|
“कुछ लोग ये भी बातें करते हैं के ये तहरीक कुछ लोगों का शौहरत हासिल करने का और एक दूसरे की तारीफ करने का जरिया है,इस के ज़रिये सभी ने अपना उल्लू सीधा किया है ” |
“लोग कहते हैं तो ठीक ही कहते होंगे”
मुझे उम्मीद थी के मेरी इस सवाल के जवाब में साहिर अपना एक मिसरा पढ़ के पीछा छुड़ाने की कोशिश करेंगे, लेकिन मेरी उम्मीद से उलट उन्होंने बर्दास्त करते हुए ये कहना शुरू किया:-
“ऐसी कोई बात नहीं है | इस तहरीक के कार-कूनों (workers) ने बहुत कुर्बानियां दी हैं, तकलीफें झेली हैं | ये बात बेशक सच है के ये लोग एक दूसरे की शौहरत में इज़ाफा करने से नहीं चुकते थे | इस की वजह मोआश्रे (society) और अदब के गलत रुझान के खिलाफ उनका नज़रियाती इत्तेहाद (unity) था | अब जो तहरीक में बोहरां (crisis) पैदा हुआ है और इस का सबब ये है के जिन वजहों से सरमायेदारी के खात्मे के लिए समाजवाद का तसव्वुर किया गया था, उस में भी शक्सी आज़ादी और कुछ दूसरे मुआमले में अमली कमियाँ महसूस की गयीं | ”
मैंने गुफ्तगू का मौज़ू बदलते हुए कहा, “फ़िल्मी शायरी, ख़ास तौर पर आपकी अपनी फ़िल्मी-शायरी के बारे में क्या राय है ?”
“अदबी शायरी के लिए भी शुरूआत में रवायती शायरी करनी पड़ती है | उस के बाद शायर अपने मन-पसंद तरीके से शायरी करता है | शायरी के उसूल शायर की पुख्ता शायरी से बनाये जाते हैं, रद्द-ओ-बदल ( dynamism ) का दायरा थोडा बड़ा करना पड़ता है | मैंने भी शुरुआत में फ़िल्मी दुनिया की रवायत से मेल खाती शायरी की, लेकिन जब मैंने अपने लिए इस दुनिया में जगह बना ली तो अपनी शर्तों पर ही काम किया और खुद इंतेखाब की फिल्मों के लिए ही लिखा | इस तरह में आसानी से अपनी शायरी के ज़रिये अपने ख्यालात और जज़्बात भी कह पाया | फिल्मों के इस पहलू को भी नज़र-अंदाज़ नहीं किया जा सकता के ये अपने ख्यालात और जज़्बात को ज़ाहिर करने का सबसे ताक़तवर तरीका है | ”
“अब आप ये बताएं के पुराने फ़िल्मी शायरों में से कौन सा शायर आपको सब से ज्यादा पसंद है ?”
“आरज़ू लखनवी |”
“और आजकल के शायरों में से ?”
साहिर के भरे हुए चेहरे पर हलकी सी परेशानी दौड़ी लेकिन, जल्द ही उन्होंने संभल कल मुस्कुराते हुए कहा, “बात ये है की मैं फिल्म writer association का सदर हूँ, इस लिए इस सवाल का जवाब देना मेरे लिए मुनासिब नहीं है | क्योंकि सदर की हैसियत से, सब फ़िल्मी शायरों को एक ही नज़र से देखना मेरा फ़र्ज़ है |”
अचानक मुझे साहिर की पुरानी नज़्म का एक शेर याद आ गया |
तुम में हिम्मत हो तो दुनिया से बगावत कर दो
वरना माँ बाप, जहाँ कहते हैं शादी कर लो ||
“इस का जवाब देना तो आप न-मुनासिब ख्याल नहीं करोगे ?”, मैंने कुछ झिझकते हुए पुछा, “आपने अभी तक शादी कियों नहीं की?”
उम्मीद से उलट इस सवाल को सुन कर साहिर कुछ चौंक से गए और फिर अपनी आदत के मुताबिक सवाल को हंसी में टालते हुए जवाब दिया, ” क्योंकि कुछ लड़कियां मेरी तरफ देर से पहुंची और कुछ लड़कियों तक मैं देर से पहुंचा |”
हम दोनों मुस्कुराने लगे और फिर मैंने कहा, “बहुत अच्छा साहिर साहब ! मुझे अब इजाज़त दीजिये, क्योंकि में बंबई में अपनी रिहाईश पर वक़्त से पहूंचना चाहता हूँ |”