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September 27, 2018हिमांशु बाजपेयी
आनंद प्रहलाद नहीं रहे. आनंद लखनऊ के रंगकर्म का चेहरा नहीं थे लेकिन वो लखनऊ के रंगकर्मीय संघर्ष का चेहरा निश्चित तौर पर थे. आनंद की मौत किसी समाज की संवेदना पर कोड़े की तरह पड़ती है. इसके नील को ‘मरना सभी को है, जो आया है वो जाएगा’ जैसे दार्शनिक बहलावों से नहीं मिटाया जा सकता. किसी भी संवेदनशील समाज को हर उस मौत पर अफ़सोस ही नहीं बल्कि अपराधबोध होना चाहिए, जो टाली जा सकती थी. जिसमें किसी भी तरह जान बचाई जा सकती थी. आनंद कैंसर से पीडित थे और उनकी आर्थिक स्थिति बेहद ख़राब थी. प्राइवेट अस्पताल में इलाज करवाना उनके बस का नहीं था. सरकारी तंत्र की बेहिसी से जूझते वो बार बार अपनी जान बचाने और इलाज शुरू करने के लिए गुहार लगाते रहे और जब तक इलाज किसी मकाम पर पहुंचता वो दुनियावी मक़ामात से आगे बढ़ चुके थे. 29 जुलाई को उनकी मौत हो गयी.
ग्यारह जुलाई को उन्होने लखनऊ के मेडिकल विश्वविद्यालय की अव्यवस्था और संवेदनहीनता से क्षुब्ध होकर फेसबुक पर स्टेटस लिखा था-
“भाई कोई मुझे तुरंत यहाँ से रेफर करा दो अभी के अभी ।नही तो अब अंत निश्चित है। ना डॉक्टर सहयोग करने को तैयार न स्टाफ। 4 दिन हो गई जांच चल रही ट्रीटमेंट के नाम पर ड्रिप। बेड अभी तक नही मिला। कोई पढ़ रहा हो तो हेल्प इमीडिएटली प्लीज. 3 बजे से कोई देखने नही आया डॉक्टर। रेफेर करने के लिए ऑन ड्यूटी डॉक्टर छोड़ने को तैयार नही कहता है 8 बजे मेन डॉक्टर के आने पर, तब तक कोई मरीज़ मर जाये तो क्या हो.”
ये स्टेटस आनंद की बेबसी और जीने की अपार इच्छा को तो दर्शाता ही है, सरकारी दावों की पोल भी खोलता है.
आनंद भयावह ग़रीबी के बीच बसर कर रहे थे. संस्कृति मंत्रालय ने 2016-17 के लिए उनकी ग्रांट फाइलों पर अप्रूव की थी. मगर दो साल बाद भी वो ग्रांट आनंद प्रहलाद तक पहुंच नहीं पाई थी. जब उनकी तबीयत ख़राब हुई तो इलाज के लिए पैसे नहीं थे पर उन्होने हिम्मत नहीं हारी. संस्कृति मंत्रालय को बार बार ई-मेल किया कि उनकी ग्रांट दो साल पहले अप्रूव हुई थी, काग़ज़ पत्तर सब पूरे हैं, परंतु पैसा अब तक नहीं मिला. वो कैंसर की आख़िरी स्टेज पर हैं, इलाज के लिए बिलकुल पैसे नहीं हैं, कृपया उनकी ग्रांट जारी की जाए परंतु संस्कृति मंत्रालय की तरफ़ से कोई जवाब नहीं आया. ग्रांट की बाट जोहते हुए ही आनंद ने दम तोड़ दिया.
53 वर्षीय आनंद मूल रूप से हरदोई ज़िले के रहने वाले थे और पिछले तकरीबन तीन दशक से लखनऊ के रंगकर्म में सक्रिय थे. सीमित संसाधनों के बावजूद अपनी संस्था अभिमंच कला एकांश के ज़रिए उन्होने लखनऊ समेत देश भर में नाटक एवं कार्यशालाएं कीं. गांव, कस्बों और छोटे शहरों से रंगकर्म की ख़्वाहिश लिए लखनऊ आने वाले लोगों के लिए आनंद प्रहलाद एक हौसला भी थे और सहारा भी. ऐसे बेशुमार लोगों के साथ उन्होने काम किया और अपनी सीमा तक सिखाया बताया भी. लखनऊ में थिएटर के समकालीन परिदृश्य पर भी वो हमेशा अपनी राय बड़ी बेबाकी के साथ प्रकट करते रहे. चाहें कोई इससे ख़ुश हो या नाराज़.
थिएटर के प्रति उनके जुनून का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि बेहद कमज़ोर आर्थिक स्थिति के बावजूद पिछले तीस साल से हर रोज़ वो ट्रेन पकड़ कर संडीला (हरदोई) से लखनऊ आते थे, यहां रंगमंच की तीनो प्रमुख जगहों भारतेन्दु नाट्य अकादमी, संगीत नाटक अकादमी और बली प्रेक्षागृह में हाज़िर रहते थे और देर शाम या रात यहां से वापस जाते थे. नौकरी के लिए हरदोई से लखनऊ अपडाउन करने वाले ढेरों होंगे पर उस जुनून के लिए जो ज़िंदगी को बुनियादी आर्थिक सुरक्षा भी न दे पाए, अपडाउन करने वाले शायद वो अकेले होंगे. मैने जब थिएटर में दिलचस्पी लेना शुरू किया तब से लेकर हाल तक मैने आनंद प्रहलाद को लखनऊ के तमाम छोटे बड़े आयोजनों में उपस्थित देखा. वो हर जगह नज़र आ जाते थे. संगीत नाटक अकादमी तो उनका स्थायी अड्डा था. ऐसा बहुत कम हुआ होगा कि मैं संगीत नाटक अकादमी जाने और वहां वक़्त गुज़ारने के दौरान मुझे उनकी झलक न दिख गयी हो. पर इसके बावजूद मेरी उनसे लंबी बातचीत कभी नहीं हुई. उनका मेरा रिश्ता अधिकांशत: बस दुआ सलाम और देखकर मुस्कुराहटों की अदला-बदली तक ही सीमित रहा. इसकी पहली वजह तो ये है कि मेरी और मेरे क़रीबियों की उनसे जो असहमतियां रहीं उसके चलते उनसे नज़दीकी सम्बन्ध कभी नहीं बन सका. दूसरा ये कि वो बहुत जल्दी चले गए. ज़िंदगी ने इतनी मोहलत ही नहीं दी कि रिश्ता गहरा हो सके. उनसे असहमति का रिश्ता ही ज़्यादा रहा. इसके बावजूद जब भी कभी मुझे या मेरे किसी दोस्त को उनकी ज़रूरत पेश आई उन्होने हमेशा आगे बढ़कर सहयोग किया. दास्तानगोई के लिए एसएनए में तखत की व्यवस्था करवानी हो या फिर लाइट एंड साउंड का हिसाब किताब देखना हो या फिर कोई और चीज़… और ये भी विडंबना देखिए कि जिस शख़्स से मैं अक्सर असहमत ही रहा, वो जाते जाते मुझे पूरी तरह क़ायल कर के गया. अपनी मौत के कुछ ही दिन पहले, जब उन्हे कैंसर होने की पुष्टि हो चुकी थी उन्होने फेसबुक पर एक स्टेटस लिखा-
कोई भी नशा, (यहां तो खेल सिर्फ सिगरेट तक ही सीमित था) आपकी कलात्मकता को प्रेरित करने में अपना कोई योगदान देता है या नही इसका कोई प्रामाणिक परीक्षित वैज्ञनिक आधार नही, (सब महिमा मण्डन किवदंतियों और ग़ैर- जिम्मेदाराना फूहड़ कथनों पर वेदवाक्यों की तरह प्रचलित है) पर देखना यह आपके कलात्मक जीवन को किसी अनचाहे क्षण पर रोक अवश्य देता है, यह एक परम सत्य अवश्य है, इसका जीवंत उदाहरण मैं स्वयं हूं।
cancer decleared,
PLEASE SAY NO TO ANY ‘नशा”
आनंद प्रहलाद कुमार, 21 07 2018 ,KGMU, lucknow, 8.22 pm.
मुझे ये स्टेटस उनकी मौत की ख़बर के साथ पढ़ने को मिला. दिल अजीब तरह की बेचैनी के साथ पिघल कर बुझ गया. जी में आया कि आनंद भाई को भींच कर गले लगा लूं और उनसे कहूं कि आनंद भाई आप आपने मुझे कायल कर लिया. आपसे हमेशा असहमत रहने वाला ये हिमांशु बाजपेयी आज आपसे पूरी तरह सहमत है, पूरी तरह. आख़िर हमारे बीच सहमति बन ही गयी. देखिए… पर देखने सुनने के लिए आनंद भाई कहां थे. अब तो देर हो चुकी थी. बहुत देर….. आनंद भाई ने अक्षरश: ठीक कहा था- कला एक चीज़ है, नशा एक चीज़. नशा ख़तरनाक चीज़ है. कला के लिए इसे अनिवार्य उत्प्रेरक बनाना और ख़तरनाक चीज़.
आनंद भाई जीना चाहते थे. वो मरना हरगिज़ नहीं चाहते थे. वो तो आख़िरी वक़्त में भी फेसबुक पर ये लिख रहे थे–
“बस सच्चे मन से दुआ करिए सब मेरे लिए ,थोड़ी मुश्किल ज़रूर आई है सामने ,जल्दी सबको किनारे कर आप सबके बीच आता हूं। बगैर थिएटर क्या मोक्ष है ?”
मगर अफ़सोस समाज और सरकार की संवेदनहीनता ने कैंसर के साथ मिलकर उन्हे मार दिया. आनंद भाई की मौत एक बार-ए-गरां सवाल की तरह ज़हन पर नाज़िल हुई है. अगर जुनूनी कलाकार इसी तरह बदहाली और उपेक्षा में मरते रहे तो सिर्फ़ पैसे वाले लोग ही कला की दुनिया में आएंगे. कोई भी ग़रीब कला के निकट आने का ख़्वाब नहीं देख सकेगा क्योंकि ये ख़्वाब देख पाने से पहले ही उसे आनंद प्रहलाद जैसे सैकड़ों कलाकारों का अति भयावह अंतिम समय दिखाई देगा. कला सिर्फ पैसे वालों के बीच ही सिमट जाएगी. वैसे भी मध्यम और निम्न मध्यम वर्गीय परिवार अपने बच्चों को कला के क्षेत्र में जाने से रोकते हैं…और क्यों जाए कोई कला के क्षेत्र में अगर समाज और सरकार कलाकारों के जीवन को बुनियादी सुरक्षा भी न दे पाए. कलाकार ज़िदा रहेगा तभी तो कला ज़िंदा रहेगी. जब पेट भरना और ज़िंदा रहना ही एक मसअला हो तो कला के मसायल कौन सोचे. ये बात सिर्फ़ भावुकता में नहीं कही जा रही. आनंद के इलाज में लापरवाही हुई, उनको उनकी दो साल पहले अप्रूव्ड ग्रांट नहीं मिल पाई. अच्छा चलिए… आनंद प्रहलाद तो आपके लिए बेहद मामूली कलाकार हो सकता है, पर मोतीलाल से लेकर भारत भूषण, जीएम दुर्रानी से लेकर अदम गोंडवी तक के आख़िरी वक़्त के बारे में पढ़ लीजिए…और साहब… मामूली कलाकार हो या मामूली आदमी….सरकारी अस्पताल में समुचित इलाज और सरकारी योजनाओं से लाभान्वित होने की आशा रखना उसका अधिकार है और अगर उसे नाजायज़ तरीक़े से इस अधिकार से वंचित रखा जा रहा है तो इस सरकार और समाज में कुछ है जो बहुत काला है.
कला के क्षेत्र में जिस तरह की अनिश्चितता है, कमज़ोर आर्थिक पृष्ठभूमि वाले कलाकारों का भविष्य जिस कदर अंधकारमय है, उसके चलते कला के क्षेत्र में आने वाले बहुत से लोग दो-चार साल के संघर्ष में ही हार मान लेते हैं, पर आनंद प्रहलाद के संघर्ष और जीवट को देखिए. तीस साल लगातार अपनी जगह डटे रहे. संडीला से रोज़ लखनऊ आते-जाते रहे. लखनऊ से ऐसी मोहब्बत मेरे लिए अपने आप में एक मिसाल है. रंगमंच को लेकर आनंद भाई से सैकड़ों लोगों की हज़ार असहमतियां हो सकती हैं, मगर एक चीज़ जिससे कोई इंकार नहीं करेगा वो है उनका संघर्ष. उनका जज़्बा. जिस सरकारी चिकित्सा तंत्र ने उनके ज़िंदा रहने की क़द्र नहीं की वो उसी को अपना मुर्दा जिस्म सौंप गए. ये सरकार को आनंद भाई का प्रतिवाद भी था और उनकी माफ़ी भी…
उठ के इक बेवफ़ा ने दे दी जान
रह गए सारे बा-वफ़ा बैठे !
(लेखक पत्रकार और दास्तानगो हैं)