लखनऊ को आपकी ज़रुरत है मन्ने भाई |
September 8, 2014Your Place
August 14, 2016
Himanshu Bajpai
लखनऊ के बारे में एक बात बहुत मशहूर है. यहां आप किसी से रास्ता पूछिए, वो आपको साथ चल के मंज़िल तक पहुंचाएगा. इस मौज़ू पर बहुत से लोगों ने बहुत कुछ लिखा है. आज ख़ाकसार भी अपना तजुरबा एक कहानी की शक्ल में आपके सामने रखेगा….
तो अप्रैल 2014 की बात है. लोकसभा चुनाव के चलते सियासी महौल गर्म था. नरेन्द्र मोदी अपने ‘हिन्दुत्व’ के साथ भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार थे. साम्प्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता की बहस अपने चरम पर थी. मुज़फ्फरनगर पहले ही हो चुका था. सोशल मीडिया पर सेक्यूलर को इस तरह से ‘सिकुलर’ कहा जा रहा था जैसे सेक्यूलर होना कोई गाली हो sites. इन सब के चलते एक तरह का साम्प्रदायिक तनाव भी फिज़ाओं में महसूस किया जा सकता था. लेकिन मै उस वक्त एक निजी वजह से ज़्यादा तनाव में था…
पीएचडी के सिलसिले में मुझे जल्द अज़ जल्द उर्दू रस्मुलख़त सीखनी थी. इसके लिए मैं बाज़ाब्ता विश्वविद्यालय से छुट्टी लेकर लखनऊ आ गया था. लेकिन मुश्किल ये थी कि कोई सिखाने वाला ही नहीं मिल रहा था. पहले पहल एक मौलवी साहब ने फीस तय करके दो-चार दिन मुझे पढ़ाया लेकिन बात कुछ बनी नहीं. क्योंकि उन्हे धर्म में अतिरिक्त दिलचस्पी थी, मुझे शाइरी में अतिरिक्त दिलचस्पी थी. उन्हे शाइरी में कोई दिलचस्पी नहीं थी. मुझे धर्म में कोई दिलचस्पी नहीं थी. जाहिर सी बात है – इस तरह साथ निभना है दुश्वार सा, मै भी तलवार सा तू भी तलवार सा. लिहाज़ा एक दिन हम दोनो ने फैसला किया कि इससे पहले कि बेवफा हो जाएं क्यों न ऐ दोस्त हम जुदा हो जाएं.
इसके बाद कई दिन गुज़र गए. फिर शाइर मनीष शुक्ला ने एक साहब को भेजा. उनसे भी फीस वगैरह की बात हुई. तीन दिन उन्होने ग़रीबखाने पर आकर मुझे मौलवी साहब से बेहतर पढ़ाया. लेकिन पता नहीं क्यों चौथे दिन वो ऐसे ग़ायब हुए कि फिर नहीं आए. कोई वजह भी नहीं बताई. संभवत: मेरे घर की दूरी अधिक होने की वजह से उनकी हिम्मत जवाब दे गई. अब मामला फिर वहीं अटक गया. वक्त गुज़रता जा रहा था लेकिन कोई ढंग का सिखाने वाला ही नहीं मिल रहा था. पिछली बार जैसा कुछ मैं चाहता नहीं था. ये पहली बार था जब लखनऊ में होने के बावजूद मैं तनाव में था. वरना तो वर्धा से लखनऊ आते ही मेरे अच्छे दिन शुरू हो जाते थे.
टेंशन जब ज़्यादा बढ़ती तो फेसबुक की शरन में चला जाता था और अपनी ज़हनी कैफियत को बयान करने वाले दो-चार शेर स्टेटस में लिख देता था. एक दिन इसी तनाव में मैंने स्टेटस अपडेट किया- हमने माना कि तगाफुल न करोगे लेकिन/ख़ाक़ हो जाएंगे हम तुमको ख़बर होने तक.
कुछ ही देर बाद स्टेटस पर एक कमेंट आया- ‘गुस्ताखी माफ़ क़िब्ला. ख़ाक़ को ख़ाक कर लीजिए’. ये कमेंट था काज़ी असद का. जिनसे केवल एक बार की ‘यूं ही’ सी मुलाकात थी. फेसुक पर भी कोई ख़ास रब्त-ज़ब्त नहीं था. मगर उनके अपडेट्स की बदौलत मैं इतना जानता था कि वो मर्सियाख़्वान हैं और उर्दू अख़बारों के लिए लिखते हैं. जब कमेंट आया तो मैने मन में कहा- हो गई सरेआम बेइज़्ज़ती. फिर सोचा कि अब चाहें जो हो जाए उर्दू सीखनी ही है. इसके बाद मैने उनके कमेंट के जवाब में लिखा- जी शुक्रिया. मै उर्दू सीखना चाहता हूं मगर कोई ढंग का सिखाने वाला नहीं मिल रहा. आपकी नज़र में कोई हो तो बताइए. इस पर उनका जवाब आया कि ढंग का उस्ताद मिलना तो बेहद मुश्किल है, बहरहाल अगर आप चाहें तो नाचीज़ खुद आपकी ख़िद्मत में हाज़िर है. मैं इस फराख़दिली का कायल हो गया. इनबॉक्स में फौरन उनका नंबर मांगा और फोन किया. उन्होने कहा- भाई आपकी शाइरी में इतनी दिलचस्पी है. उर्दू सीख लीजिए. शख़्सियत में चार चांद लग जाएंगे. मुझे याद आया कि फिराक गोरखपुरी कहा करते थे उर्दू इसलिए सीख लो ताकि अफसर बनने के बाद अफसर लगो भी. मैने कहा- सीखना तो हम भी चाहते हैं, कोई सिखाने वाला ही नहीं मिल रहा. बोले- ख़ाकसार किस दिन काम आएगा. जो कुछ मैने बुज़ुर्गों से सीखा है, आपसे बांट लूंगा. मुझे ख़ुशी होगी अगर किसी काम आ सका. उनकी आवाज़ में इतना ख़ुलूस था कि मैं इंकार न कर सका.
अब मुश्किल ये थी कि फीस की बात कैसे की जाए. बिना फीस दिए मैं पढ़ना नहीं चाहता था. एक तो इसलिए क्योंकि मैं जानता था कि असद मेरे हमउम्र हैं और मेरी ही तरह फ्रीलांस राइटर हैं लिहाजा उन्हे पैसे की ज़रूरत होगी. दूसरा ये कि फीस तय होने पर व्यावसायिक प्रतिबद्धता के चलते सीखने सिखाने में एक अनुशासन आता है. लेकिन मैं जानता था कि यहां फीस का नाम तक लेना बद्तमीज़ी में शुमार होगा. लिहाज़ा मैने बड़े इन्केसार से असद से कहा- मैं आपसे पढ़ूंगा ज़रूर मगर इस शर्त पर कि इसके बदले जो कुछ मैं आपको दूंगा, लेना पड़ेगा. असद बोले- अगर आपका इशारा फीस की तरफ है तो मुझे माफ कीजिए. मै एक दोस्त की तरह मदद करना चाहता हूं, दोस्त मदद करने की फीस नहीं लेते. मैने कहा- फीस नहीं दे रहा मैं, लेकिन कुछ गुरू दक्षिणा तो आपको लेनी ही पड़ेगी. असद बोले- वो मैं खुद मांग लूंगा आपसे आखिरी दिन. इसके बाद मैने उनसे पूछा कि मुझे कहां आना होगा सीखने के लिए ? वो बोले आप ज़हमत न करें मैं खुद हाज़िर हो जाऊंगा. दौलतखाने पर.
मैने सोचा कि एक तो ये आदमी ख़ुद आगे बढ़कर मुझे पढ़ाने को तैयार है. बदले में कुछ ले भी नहीं रहा. इस पर मैं इसे घर भी बुलाऊं तो ये तो पूरी नवाबी हो जाएगी. लिहाज़ा मैने उनसे कहा- देखिए पहले वाले उस्ताद घर आने की वजह से ही छोड़ गए थे. अब मै आप की शागिर्दी से महरूम नहीं होना चाहता. और वैसे भी प्यासा कुएं के पास जाता है न कि कुआं प्यासे के पास. तो मैं ही आपके पास आऊंगा. असद बोले- घर पर कुछ न कुछ डिस्टर्बेंस लगी ही रहेगी. मैं चाहता हूं कि आपको पूरी संजीदगी से पढ़ाऊं. कुछ देर के लिए हम दोनो ख़ामोश हो गए. फिर असद बोले- अच्छा ऐसा कर लीजिए. किसी पार्क में पढ़ लीजिए. जो बीच में हो. ताकि दोनो की बात रह जाए. मैने कहा बेहतर है. इसके बाद वक्त मिलने का वक्त मुकर्रर हुआ और अगले दिन से दोनो घरों के बीच स्थित एक शांत पार्क में क्लास शुरू हो गई. उस दौर में जब मीडिया ने हर तरफ साम्प्रदायिक माहौल बना रखा था, काज़ी असद बड़े खुलूस से हिमांशु बाजपेयी को उर्दू पढ़ा रहे थे. असद भाई धार्मिक व्यक्ति थे. मगर उनकी और मौलवी साहब की धार्मिकता में उतना ही अंतर था जितना गांधी और गोडसे की धार्मिकता में था.
पहले ही दिन मुझे इस बात का अंदाज़ा हो गया कि असद बिल्कुल वैसे उस्ताद हैं, जैसा मै अपने लिए चाहता था. ख़ूबसूरत और ख़ुशपोश इंसान. सरापा लखनऊ. वो भी आज का लखनऊ नहीं, वाजिद अली शाह का लखनऊ. बोलते थे तो मन करता था सुनते ही रहो. रोशनख़याल, तरक़्क़ीपसंद. उर्दू ऐसी कि बड़े-बड़े हैरान हो जाएं. हाफिज़ा ऐसा कि अरे तौबा. पूरे-पूरे मर्सिए याद हैं. हज़ारों-हज़ार शेर याद हैं जो दम-ब-दम गुफ्तगू में चार चांद लगाते हैं. तलफ्फुज़ को लेकर बेहद संजीदा बेहद संजीदा. गलत अदायगी पर फौरन टोक देते. छोटा मोटा जोश मलीहाबादी समझिए. मैने एक बार उन्हे मज़ाक में कहा भी था कि उस्ताद आपका नाम असद नहीं बल्कि शब्बीर हसन होना (जोश का असली नाम) चाहिए था. इस पर बहुत ख़ुश हुए और जोश की ये रूबाई सुनाई-
लैला-ए-सुख़न को आंख भर कर देखो
क़ामूस-ओ-लुग़ात से गुज़र कर देखो
अल्फ़ाज़ के सर पर नहीं उड़ते मानी
अल्फाज़ के सीनों में उतर कर देखो
हर दिन जब वो पढ़ाना ख़त्म करते तो किसी उस्ताद का एक बेहतरीन शेर सुनाते थे. ये हर क्लास में मेरा पसंदीदा वक्त होता था. क्योंकि शेर ऐसा होता था जो मैने पहले नहीं सुना होता था. जब भी मैं उनकी तारीफ करता तो अमूमन वो बेहद विनम्रता से सिर्फ इतना कहते- ये तो आपका हुस्ने नज़र है वरना मै तो बस एक कुंदा-ए-नातराश हूं. लेकिन कभी कभी जब मस्ती से सरशार होते तो अदा के साथ जवाब देते- उम्र गुज़री है इसी दश्त की सैयाही में या फिर मुस्तनद है मेरा फरमाया हुआ. अदबी ख़ुलूस और ईमानदारी भी उनमे बहुत देखी. एक दफा मैने उनसे पूछा कि अनीस और दबीर में आप किसको बड़ा मानते हैं. मुझे उम्मीद थी कि वो अनीस का नाम लेंगे. क्योंकि आमतौर पर ऐसा ही होता है. लेकिन उन्होने बिल्कुल निराला जवाब दिया. मुझसे बोले- हिमांशु भाई, आप भी शख़्सियतपरस्ती करने वालों में हैं क्या. ये सवाल वही लोग करते हैं तो फन के बजाए आदमी को पूजते हैं. कला से मिलने वाला लुत्फ कलाकारों की तुलना से मिलने वाले लुत्फ से बहुत बड़ा होता है.
पढ़ाते भी वो बहुत ईमानदारी से थे. पढ़ाने का अंदाज़ भी एकदम अलग था. बहुत ही वैज्ञानिक ढंग और बहुत ही व्यवस्थित ढंग से पढ़ाना. बहुत आराम आराम से. एक एक कदम करके आगे बढ़ना. छोटी से छोटी चीज़ पर भी बहुत वक्त देना और बारीक़ से बारीक़ चीज़ों को भी पूरी तफ़्सील से समझाना. जिनपर आमतौर पर दूसरे लोग रूकते भी नहीं. क्योंकि उन्हे खुद उनके बारे में बहुत ज़्यादा जानकारी नहीं होती. अगर मैने जल्दबाज़ी दिखाई तो कहते- हुज़ूर ये लखनऊ है, यहां जल्दी का काम शैतान का. या फिर मीर अनीस के पोते सुल्तान साहब फरीद का मिसरा पढ़ते- दफतन चर्खे चहर्रूम पे पहुंचना है मुहाल. यानी कोई एकदम से चौथे आसमान पर नहीं पहुंच सकता. एक दिन मुझसे कहने लगे- ‘लखनऊ का अनपढ़ से अनपढ़ आदमी भी साफ-सुथरी उर्दू बोलता है. अगर उससे पूछा जाए कि ऐसा क्यों बोलते हो तो नहीं बता पाता. क्योंकि लखनऊ वाले कुदरती तौर पर अच्छा बोलते हैं इसलिए ज़बान सीखने की ज़हमत नहीं करते. सीखना इसलिए ज़रूरी है ताकि आप महज़ देखा-देखी सही ज़बान न बोलें बल्कि सही क्या है और गलत क्या है ये जानते हुए सही ज़बान बोलें.
वो जितने अच्छे उस्ताद थे मैं उतना ही नालायक शागिर्द था. यूं समझिए कि गवाह चुस्त मुद्दई सुस्त वाला मामला था. कभी कभी तो पार्क में टहलते लोग तक आके कह जाते कि बेटा ढंग से पढ़ो न वो बेचारे कितनी मेहनत से पढ़ा रहे हैं. लेकिन हम कहां सुधरने वाले थे. इसके बावजूद असद ने मुझे बच्चे की तरह पढ़ाया. चलिए भाई 100 बार लाम लिखिए. चलिए पचास बार दो चश्मी हे बनाइए. वगैरह वगैरह… हर रोज़ वो होमवर्क देते और हाथ जोड़कर, पुचकार कर गुज़ारिश करते कि भइया बहुत थोड़ा सा काम दिया है इसको पूरा कर लीजिएगा. और हर रोज़ मै उसे हमेशा अधूरा छोड़ देता. लेकिन अगर किसी दिन मै गलती से होमवर्क कर लेता तो वो मुझपर तंज़ कसते हुए कहते- किब्ला थोड़ा आराम कर लीजिए. बहुत थक गए होंगे आज तो… सरकार लाइए मै आपका दस्ते मुबारक चूम लूं…वगैरह वगैरह.
तकरीबन दो महीने तक असद ने मुझे हर रोज़ पढ़ाया. ये अलग बात है कि मै अपनी लापरवाही के चलते वैसा नहीं सीख सका जैसा वो चाहते थे और जितना सीखा वो भी बाद में मश्क़ न करने की वजह से भूल गया. मगर असद ने मुझे सिखाने में ज़रा भी लापरवाही नहीं की. हर रोज़ वो निश्चित वक्त पर आते थे और अनिश्चित वक्त पर वापस जाते थे.क्लास तो एक घंटे की तय थी लेकिन उन्होने हमेशा इससे ज़्यादा पढ़ाया. दो महीने की पढ़ाई के दौरान उन्होने इतवार के अलावा सिर्फ एक दिन छुट्टी ली. जिस दिन लोकसभा चुनावों के नतीजे आने वाले थे. एक दिन पहले जब क्लास ख़त्म हुई तो वो मुझसे बोले- भाई कल के लिए मैं माज़रत चाहूंगा. मैने कहा- अरे कोई बात नहीं. मैं भी यही चाहता था. कल नतीजे देखूंगा. वो बोले- जी, वो बात नहीं है. नतीजे तो शाम तक सब आ ही जाएंगे. इसलिए क्लास हो सकती है. मगर बात ये है कि अगर मोदी की सरकार बन गई तो ‘भक्त’ हुड़दंग मचा सकते हैं. माहौल आप देख ही रहे हैं. मुझे डर नहीं लगता. पर अम्मी डरी हुईं हैं. उनका कहना है कि कल घर ही में रहना. इसलिए कल रहने दीजिए. इसके बाद मै कुछ नहीं बोल सका. मै शर्मिन्दा था, कि मै उस मुल्क का बहुसंख्यक हूं जो अपने अल्पसंख्यकों को तहफ्फुज़ का अहसास नहीं दे पाता. मुझे लगा कि लखनऊ के बारे में मेरा सब लिखना पढ़ना बेकार है, अगर मै असद जैसे फरिश्ता-सिफत लोगों के दिल से वो डर नहीं निकाल पाया जो चंद कट्टरपंथियों ने पैदा किया है.
आख़िरी दिन जब पढ़ाई का सिलसिला ख़त्म हुआ तो हम दोनो बहुत भावुक थे. मैने फेसबुक कमेंट में उनसे केवल रास्ता पूछा था (उर्दू सीखने का) …और वो मुझे मंज़िल तक पहुंचाने मेरे साथ चले आए थे. आज ये सफर ख़त्म हो रहा था. क्योंकि मुझे वर्धा लौटना था. वक्ते रूखसत उन्होने मुझसे कहा कि मै आपको ज़्यादा सिखा नहीं सका. इस पर मैने अश्के निदामत से मुंह धोते हुए कहा- आपने तो पूरी मेहनत से सिखाया मै ही नहीं सीख सका. फिर मैने कहा आज तो आपको गुरू-दक्षिणा लेनी ही पड़ेगी. वो बोले- जी, वो तो मुझे चाहिए. मैने कहा- क्या चाहते हैं ? उन्होने कहा मै गुरू दक्षिणा में ये चाहता हूं कि आप उर्दू लिखना पढ़ना सीख लें. मैने कहा- ज़रूर दूंगा.
मैं अभी तक असद भाई को गुरू दक्षिणा नहीं दे पाया. मगर मुझे यकीन है कि एक न एक दिन ज़रूर दूंगा. शुक्रिया असद भाई. दुआ करता हूं कि आप हमेशा स्वस्थ रहें, मस्त रहे.
अभी तहज़ीब का नौहा न पढ़ना
अभी कुछ लोग उर्दू बोलते हैं.