Not To Have a Plan
December 23, 2016Of Wandering and Wanderlust
December 27, 2016Himanshu Bajpai
मेरे दोस्त, मेरे हमदम, मेरे मोहसिन, मेरे करमफ़रमा, अभिषेक शुक्ला का एक मज़मून इन दिनों इन्टरनेट पर धूम मचा रहा है. ये मज़मून उन्होंने उस्ताद शाइर पंडित हनुमान प्रसाद शर्मा उर्फ़ आजिज़ मातवी साहब पर लिखा है. अभिषेक शुक्ला दुनिया-ए-ग़ज़ल में शहर-ए-ग़ज़ल की सबसे ताज़ा और शिगुफ़्ता पहचान हैं, और इस मज़मून के ज़रिए वो नस्र के मैदान में भी वालेहाना तमकनत के साथ बर-आमद हुए हैं. इसका उन्वान उन्होंने नासिर काज़मी के शेर से लिया है-
रौनक़ें थी जहां में क्या क्या कुछ
लोग थे रफ़्तगां में क्या क्या कुछ
मगर मेरे ज़हन में ये लेख पढ़के जो शेर कौंधा वो मजरूह सुल्तानपुरी का है-
बे-तेशा-ए-नज़र न चलो राह-ए-रफ़्तगां
हर नक़्श-ए-पा बुलंद है दीवार की तरह.
मज़मून पढ़ के दिल ख़ुश हो गया. मगर एक अपराधबोध भी हुआ. आजिज़ साहब के जाने के बाद किसी ने उन पर ठीक से नहीं लिखा. मैने भी नहीं. जबकि मैं हमेशा इस बात पर फख़्र महसूस करता रहा कि मैने आजिज़ साहब को देखा है, उनसे बात की है. वो मज़मून पढ़ के मेरे दिल ने भी चाहा कि मैं आजिज़ साहब पर लिखूं. शायद ये दिल में उठे अपराध-बोध को कम करने की ख़्वाहिश थी. बहरहाल मैं उनपर लिख रहा हूं. अभिषेक शुक्ला का शुक्रिया, मुझसे ये काम करवाने के लिए.
अभिषेक की ही तरह मेरी मुलाक़ात भी आजिज़ साहब से डॉ. निर्मल दर्शन उर्फ निर्मल दद्दा ने ही करवाई थी. कोई कार्यक्रम था बली प्रेक्षागृह में. उसके शुरू होने से पहले ही हॉल के बाहर मुझे निर्मल दद्दा मिल गए. उनके साथ तक़रीबन अस्सी साल के एक बुज़ुर्ग भी थे.
निर्मल दद्दा ने आजिज़ साहब का तआरूफ़ देते हुए कहा- आप पंडित आजिज़ मातवी साहब हैं, उस्ताद-उल-असातेज़ा. मैने आजिज़ साहब को प्रणाम किया और पूछा- आप ठीक हैं ? जवाब में आजिज़ साहब ने जो मानीख़ेज जुमला कहा वो मुझे ज़िंदगी भर याद रहेगा. वो अपनी जाविदां मुस्कुराहट के साथ बोले-‘अब तो होना ही ठीक होने की अलामत है.’ मैं हैरान था. कितनी गहरी बात कितनी बरजस्तगी से कही थी उन्होंने. वो उम्र के उस मक़ाम पर थे जहां सचमुच, दुनिया में होना ही किसी के ठीक होने का प्रतीक होता है. इस एक जुमले ने मुझे पहली मुलाक़ात में ही उनका क़ायल कर दिया… और फिर मैने आजिज़ साहब को क़ायदे से जानना शुरू किया.
आजिज़ साहब उस्ताद शाइर थे. शाइरी के छंदशास्त्र (अरूज़) और अरबी फ़ारसी के प्रामाणिक विद्वान माने जाते थे. लखनऊ ही नहीं बल्कि पूरी उर्दू दुनिया उनकी इल्मी लियाक़त का एहतराम करती थी. ये लियाक़त पड़ी नहीं मिल गयी थी उन्हें. उन्होंने इसे अपनी रियाज़त के दम पर हासिल किया था. रियाज़त,जिसकी अहमियत वो अपने ज़माना-ए-तिफ़्ली से ही जानते थे. उन्होंने अपने बचपन का एक क़िस्सा सुनाया था कि वो छह साल के रहे होंगे, जब गांव में मौलवी ग़ुलाम हुसैन से उर्दू का इब्तेदाई सबक़ हासिल कर रहे थे. एक दिन तारीफ़ के इमले में उन्होंने ऐन की जगह अलिफ़ लिख दिया. इतनी सी बात थी कि मौलवी साहब ने उनपर संटियों की बरसात कर दी. इतना मारा कि उन्होंने वहीं पेशाब कर दिया. मौलवी साहब उन्हें घर ले गए, उनके कपड़े बदलवाए और दोबारा मक़तब ले आए. इस वाक़ए के बाद बाद आजिज़ साहब दीवानावार ज़बान सीखने में लग गए… ये उनकी मेहनत ही थी कि वो नौजवानी में ही साहिब-ए-ज़बान समझे जाने लगे.
उनकी नौजवानी का ही एक वाक़या है. एक दफ़ा वो किसी निशस्त में थे. जब उन्हें आवाज़ दी गई तो आजिज़ साहब ने एक मुश्क़िल बहर में ग़ज़ल सुनाई. सुनने वाले अश-अश कर उट्ठे. कुछ लोगों को यक़ीन ही नहीं हुआ कि ये ग़ज़ल आजिज़ साहब की है. इस उम्र में ऐसी ग़ज़ल ? वो भी इस बहर में ? उनको ये नामुमकिन लगा. बहुत मुमकिन है कि कोई मज़हबी तास्सुब भी रहा हो. बहरहाल उन लोगों में से एक ने घोर अविश्वास भरे लहजे में आजिज़ साहब से कहा- बहर बता देंगे ? ये सवाल आजिज़ साहब को अच्छा नहीं लगा. उन्होंने जवाब में पूछा कि आप सचमुच जानना चाह रहे हैं या मेरा इंटरव्यू लेना चाहते हैं ? आजिज़ साहब के तेवर देखकर पूछने वाला घबरा कर ख़ामोश हो गया. इसके बाद आजिज़ साहब उस ग़ज़ल की बहर और बाक़ी तकनीकी पहलुओं पर इस अंदाज़ में बोले कि सारी महफिल उन्हें गोश-बर-आवाज़ होकर सुनती रही.
जब कभी मद्द-ए-मुक़ाबिल वो रुख़-ए-ज़ेबा हुआ
आईना भी रह गया हैरत से मुंह तकता हुआ
अब्र-ए-ग़म बरसे तो अश्कों की रवानी देखना
साहिल-ए-मिज़्गां पे है तूफ़ां अभी ठहरा हुआ
आजिज़ साहब उत्तर प्रदेश परिवहन निगम में फोरमैन थे. ये नौकरी उन्हें बहुत जल्दी मिल गयी थी. इसी के बाद वो लखनऊ आए, जहां उनकी तख़्लीक़ी कूव्वत को एक नया आसमान मिला. यहां उन्हें शदीद लखनवी जैसे मुस्तनद उस्ताद की शागिर्दी का शरफ हासिल हुआ, जिनका सिलसिला प्यारे साहब रशीद से मिलता था. जल्द ही वो लखनऊ की अदबी महफ़िलों का ज़रूरी हिस्सा बन गए. ग़ज़ल, नज़्म, मर्सिया, नौहा, तारीख़, सलाम, क़ता, रूबाई… ग़रज़ कि हर सिन्फ़-ए-सुख़न में उन्होंने अपना जौहर दिखाया. फोरमैन जैसी सख़्तजान नौकरी में होते हुए शाइरी से उनकी रग़बत हैरान करने वाली थी. मगर आजिज़ साहब अलग तरह के आदमी थे. वो तो फोरमैन के काम में भी शाइर के काम की चीज़ ढूंढ लेते थे. लखनऊ का ही वाक़या है. एक बार एक बस ख़राब हो गयी. इसका एक बोल्ट खोलना था जो किसी से नहीं खुला. आजिज़ साहब ने भी कोशिश की. उनसे भी नहीं खुला. लेकिन दूसरों की तरह उन्होंने औज़ार नहीं रखे. वो कोशिश करते रहे और आख़िर बोल्ट खोलकर ही माने. वो बताते थे कि मुझे मेरे सीनियर फोरमैन ने ये सिखाया था तब तक डटे रहो जब तक पेंच खुल न जाए और अगर हमसे न खुले तो फिर वो काटा जाए.किसी दूसरे से खुल गया तो फिर हम नाक़िस (नाकारा) हुए. यही उसूल मैने शाइरी के पेंचो-ख़म के लिए इस्तेमाल किया कि अगर आप मतरूक लफ़्ज़ भी इस्तेमाल करें, तो इस हुनरमंदी से इस्तेमाल करें कि दूसरा कोई माहिर-ए-फन फिर उस लफ़्ज़ को बदल न सके.
अल्फ़ाज़ और बहर के मामले में वो बेहद मोहतात थे. ये एहतियात उनके वसीअ इल्म का तक़ाज़ा थी. अनवर जलालपुरी साहब ने उनके बारे में मुझसे कहा था कि अल्फाज़ और बहर का उनसे बड़ा जानकार यूपी में तो कोई नहीं है और हिन्दुस्तान में भी शायद ही हो. अनवर साहब ने कुछ साल पहले जब भगवद-गीता का अपना उर्दू अनुवाद मुकम्मल किया तो इसका मसौदा आजिज़ साहब को जांचने के लिए भेजा. आजिज़ साहब का इल्म सिर्फ उनके लिए नहीं था, सबके लिए था. बेशुमार लोगों ने इससे फैज़ हासिल किया. इनमें ऐसे लोग भी शामिल थे जिनका इल्मो-अदब की दुनिया में बड़ा नाम है. एक बार एक मशहूर शाइर ने उन्हें अपनी ग़ज़ल सुनाई. किसी लफ़्ज़ पर आजिज़ साहब ने उन्हें टोका, और कहा कि इस लफ़्ज़ का इस्तेमाल ग़लत है. इस पर शाइर ने लापरवाही से कहा- एक ही जगह ग़लती हुई है, बाक़ी ठीक है. इतनी गहराई में कौन जाता है ? आजिज़ साहब ने फ़रमाया- आपने पूरी जिंदगी मेरी इज़्ज़त की है, मुझसे अदब से पेश आए हैं, क्या सिर्फ एक बार आप मुझसे बदसलूक़ी कर सकते हैं. इस पर वो शाइर कुछ नहीं बोले…फिर उन्होंने किसी दूसरे शाइर का शेर कोट करते हुए कहा कि देखिए फुलां ने भी इस लफ़्ज़ को ऐसे ही बरता है. अब आजिज़ साहब उन्हें समझाते हुए बोले- भैया कोई दूसरा ग़लती करे तो आप भी ग़लती करेंगे ? उन्होंने अपने पसंदीदा शाइर आरज़ू लखनवी का एक मिसरा कोट किया- ‘ऐब बने दलील-ए-ऐब,ये कोई क़ायदा नहीं’ ! बात वहीं ख़त्म हो गयी. शेर रद्द हो गया.
ऐसे बहुत से लोग थे जो शाइरी में उनके शागिर्द नहीं थे, मगर जब भी कहीं फंसते तो आजिज़ साहब की शरण में जाते, और कलंदर-सिफत आजिज़ साहब पूरे इत्मीनान से उनकी मुश्क़िल हल करते….और अपने शागिर्दों को सिखाने के लिए तो आजिज़ साहब दिल-ओ-जान से हाज़िर रहते. इल्म का जो खज़ाना उन्होंने अपनी साठ बरस की कड़ी मश्क़-ए-सुखन से हासिल किया, जाने से पहले उसका एक एक क़तरा अपने शागिर्दों को बांट देना चाहते थे. यही वजह है कि आख़िरी वक़्त में, जब वो अस्पताल में थे, उस आलम में भी दवाई के परचों पर अभिषेक को अरूज़ के असरार-ओ-रमूज़ समझाया करते थे. मशहूर ग़ज़ल गायक कैलाश जोशी ने मुझे बताया था कि आख़िरी दिनों में जब उनके बदन में असहनीय दर्द रहा करता था, तब भी शाइरी पर बात करते हुए वो अपना दर्द फरामोश कर देते थे. उनका सिखाने का अंदाज़ भी जुदागाना था. ख़ुशकलामी और लताफ़त से भरपूर.
एक बार किसी मुशायरे में वो सदारत कर रहे थे. उनके शागिर्द निर्मल दर्शन माइक पर आए और अपनी ग़ज़ल पेश की..
सच की गर्मी से रोज़ जलता है
फिर भी आंखों में ख़्वाब पलता है.
अगला शेर उन्होंने कुछ यूं पढ़ा-
लड़खड़ाता है और भी ज़्यादा
जितना ज़्यादा कोई संभलता है.
पीछे से आज़िज़ साहब की आवाज़ सुनाई दी- भई वाह. इल्म में इज़ाफ़ा हो गया…पहली बार सुना ये लफ़्ज़…अपने ही शागिर्द पर मंच से इस तरह का तंज़ सिर्फ आजिज़ मातवी कर सकते थे. बहरहाल निर्मल दर्शन समझ गए कि शेर में कुछ कमी है इसलिए उसे वहीं रद्द कर दिया. मुशायरा ख़त्म होने के बाद आजिज़ साहब निर्मल दर्शन के साथ ही बाइक पर वापस लौट रहे थे. रास्ते में वो निर्मल जी से बोले- हां भई, पढ़िए वो ग़ज़ल. निर्मल दद्दा ने बाइक चलाते चलाते ही ऊंची आवाज़ में वो गज़ल सुनाई. आजिज़ साहब भी पीछे से उसी तरह बोले- ये आपने ‘ज़्यादा’ लिखा कहां देखा है ? निर्मल जी बोले- हर जगह लिखा रहता है. आजिज़ साहब ने पूछा- आपने कहां देखा ? जवाब मिला- अख़बार में. आजिज़ साहब बोले- बहुत अच्छे ! फिर आप अख़बार ही से सीखिए शाइरी. वो भी हिन्दी के. निर्मल जी ख़ामोश हो गए. इसके बाद आजिज़ साहब ने बताया- सही लफ़्ज़ है ज़ियादा. लफ़्ज़ वही इस्तेमाल करो जो मुस्तनद हो. शुबहा हो तो किसी ऑथेंटिक जगह से तस्दीक़ कर लो.
ऐसे बेशुमार अल्फ़ाज़ हैं जो अक्सर लोग ग़लत ही बोलते हैं. बारहा उन्हें पता भी नहीं होता कि ठीक लफ़्ज़ क्या है. मगर आजिज़ साहब ग़लत लफ्ज़ सुनते ही टोक देते थे और फिर बताते थे कि सही लफ़्ज़ क्या है, और कैसे अदा किया जाएगा. शमा नहीं शमअ, प्याला नहीं पियाला, हमदानी नहीं हमादानी, चौबीस तारीख़ नहीं चौबीसवीं तारीख़ वगैरह वगैरह. एटिमोलॉजी के बादशाह थे वो. जोश मलीहाबादी की तरह वो भी लुग़त और डिक्शनरी का नियमपूर्वक अध्ययन अपने बुढ़ापे तक करते रहे.
ज़बान को लेकर उनकी इस पाबंदी पर लोग उन्हें छेड़ते भी थे. पर उन्होंने कभी इसका बुरा नहीं माना, बल्कि वो तो इसका लुत्फ़ लेते थे. इस सिलसिले में मुझे एक बेहतरीन क़िस्सा याद है. इसके रावी भी डॉ. निर्मल दर्शन हैं. एक बार उन्होंने अपना एक शेर आजिज़ साहब को सुनाया-
सर नहीं हाथों में इस पगड़ी को रख
जब तलक बेटी तेरी रूख़सत न हो !
आजिज़ साहब ने कुछ सोचा और बोले फिर से पढ़ो. निर्मल दर्शन ने फिर पढ़ा. आजिज़ साहब ने फरमाया- ये तलक जो है, ये शाइरी का लफ़्ज़ नहीं है. अब इस हवाले से वो तफ़सील से बताने लगे कि ज़बान कितने तरह की होती है. मसलन- शुरफ़ा की ज़बान, फुहशा की ज़बान, बाज़ार की ज़बान, किसान की ज़बान, इबादत की ज़बान, तिजारत की ज़बान वगैरह वगैरह. बोले- हर ज़बान के अपने अल्फाज़ होते हैं. पूजा करते वक़्त हम गंगा का पानी नहीं गंगाजल इस्तेमाल करते हैं. इसी तरह तलक का इस्तेमाल शाइरी में जायज़ नहीं है. कम अज़ कम लखनऊ में. इस पर निर्मल दर्शन ने कहा कि फिर क्या हो सकता है ? अब आजिज़ साहब ने उन्हें एक मिसरा सुझाया-
सर नहीं हाथों में इस पगड़ी को रख
ता-ब-कय दुख़्तर तेरी रूख़सत न हो
मिसरा सुनते ही निर्मल दर्शन के तोते उड़ गए. उन्हें हंसी आ गयी तो आजिज़ साहब भी हंस पड़े. बहरहाल निर्मल जी ने मिसरा दुरूस्त कर लिया- सर नहीं हाथों में इस पगड़ी को रख/ता-ब-कय दुख़्तर तेरी रूख़सत न हो. वहां से निर्मल जी अपने दोस्त शाइर कमल हातवी के यहां पहुंचे. कमल आजिज़ साहब को चाचा कहते थे और उनकी ख़सलत से वाक़िफ़ थे. निर्मल जी ने उनसे कहा- एक ग़ज़ल हुई है सुनो. ग़ज़ल पढ़ते हुए जैसे ही उन्होंने ये शेर सुनाया कि सर नहीं हाथों में इस पगड़ी को रख/ता-ब-कय दुख़्तर तेरी रूख़सत न हो….कमल हातवी शैतानी भरे अंदाज़ में बोले-का चाचा मिले रहंय का आज ? निर्मल दद्दा धीमे से बोले – हां, चाचा आए थे. उन्होंने इस्लाह फ़रमा दी है. कमल ने फिर मौज ली- ठीक है फिर, मुशायरों में पढ़ो जाके…..क्या था वो, ता-ब-कय ? या का-ब-तै ?…. फिर गणित लगाके बोले- इसमें छह आप्शन निकल रहे हैं- ता-ब-कय, ता-कबै, का-बतै, का-तबै, बा-तबै, बा-कतै….ये छह ऑप्शन हैं, और मुझे पूरा यक़ीन है कि तुम छहों कहीं न कहीं पढ़ डालोगे. सर नहीं हाथों में इस पगड़ी को रख/ता-ब-कय बेटी तेरी…नहीं माफ़ कीजिएगा का-बतै…नहीं नहीं…बा-कतै बेटी तेरी रूख़सत न हो…ऐसा करते करते सारे ऑप्शन पढ़ डालना….
अभी ये दोनो हंस ही रहे थे कि आजिज़ साहब भी वहां पहुंच गए. कमल हातवी ने संजीदा शक़्ल बनाकर उनसे पूछा- चाचा ! वो निर्मल ने जो काबिलियत दिखाते हुए बहुत सख़्त मिसरा कहा था, जिसे आपने आसान कर दिया था, क्या था वो ? आजिज़ साहब कमल की इस छेड़ को समझ गए और हंसने लगे. इसके थोड़ी देर बार निर्मल दर्शन ने संजीदा होकर आजिज़ साहब से कहा- दद्दा ये बताइए कि ता-ब-कय तो ठीक है मगर ये बेटी की जगह दुख़्तर तेरी रूख़सत न हो क्यों कर दिया. बेटी भी तो आ सकता था. जो पहले था. आजिज़ साहब बेहद नर्म लहजे में बोले- भई देखिए ता-ब-कय के साथ बेटी कुछ मुनासिब नहीं लगता. मिसमैच नहीं होना चाहिए न. माहौल का भी ख़याल रखना पड़ता है मिसरे के. इसीलिए दुख़्तर लाना पड़ा बेटी की जगह. ता-ब-कय के साथ वही ठीक लगता है. इस वाकये के बाद कई दिनों तक निर्मल दर्शन और कमल हातवी आजिज़ साहब के ता-ब-कय को याद करके हंसते रहे.
ता-ब-कय से जुड़ा आजिज़ साहब का एक और क़िस्सा है, जो उनकी शाइराना अज़मत को बयान करता है. किसी ने उन्हें एक मिसरा देकर, इस पर शेर कहने को कहा. मिसरा था- कहीं बिजली गिरेगी आज तय है. आजिज़ साहब ने इस पर जो शेर कहे वो उनकी उस्तादी के ज़ामिन हैं-
नफ़स की आमद-ओ-शुद पय-ब-पय है,
नहीं मालूम जीना ता-ब-कय है,
ये है आईने की पेशीनगोई,
कहीं बिजली गिरेगी आज तय है.
आजिज़ साहब बेहद सादा और मुख़्लिस इंसान थे. कभी कभी तो ये लगता था कि जैसे वो ख़ुद नहीं जानते कि वो कितने बड़े आदमी हैं. सबके लिए हाज़िर. सबकी मदद को तैयार. सख़ावत मशहूर थी उनकी. वो एक ऐसे बुज़ुर्ग थे जो बच्चों के साथ बच्चे और नौजवानों के साथ नौजवान बन जाते थे. एक बार किसी गांव में कोई मुशायरा था. कन्वीनर मुशायरा जो कि एक नौजवान शाइर थे, आजिज़ साहब के पास आए और कहा कि चाचा अगर आप बतौर सद्र मौजूद रहेंगे तो ये मामूली सा मुशायरा बावक़ार हो उट्ठेगा. उनकी हिम्मत बढ़ाने के लिए आजिज़ साहब फ़ौरन राज़ी हो गए. कन्वीनर साहब ने मज़ीद अर्ज़ किया कि चाचा,देहात का मुशायरा है लिहाज़ा अपनी सबसे आसान ग़ज़ल सुनाइएगा. आजिज़ साहब ने ये बात भी ख़ुशी-ख़ुशी मान ली. मुशायरे में उन्होंने बतौर सद्र अपनी एक ग़ज़ल शुरू की- तजल्ली है…. मंच से राजेन्द्र पंडित की आवाज़ आई- तजल्ली मतलब ? आजिज़ साहब बोले- उजाला, रोशनी. राजेन्द्र पंडित ने शरारती अंदाज़ में कहा- चाचा ये सबसे आसान ग़ज़ल है ? आजिज़ साहब ने हंसते हुए कहा भइया जब कोई नया लफ्ज़ सुनो तो उसे बातचीत में इस्तेमाल करने लगो..सीख जाओगे. राजेन्द्र पंडित मुस्कुराते हुए बोले- जी चाचा. आजिज़ साहब ने गज़ल मुकम्मल की.
तजल्ली है कि परवाना किए है
क़यामत दिल का आ जाना किए है
अभी सूरत नहीं देखी है उनकी
मोहब्बत है कि दीवाना किए है…
मुशायरे के बाद रात में सब लोग लौटने लगे तो राजेन्द्र पंडित ने आजिज़ मातवी से पूछा- चाचा आप लखनऊ चलेंगे या रात में यहीं तजल्ली फैलाएंगे… सुनते ही आजिज़ साहब खिलखिला के हंस पड़े.
वो शाइरी, ज़बान और अरूज़ के माहिर थे. अदब की दुनिया में उन्हें उस्तादुल असातेज़ा यानी उस्तादों का उस्ताद कहा जाता था. मगर उनकी एक ख़ूबी मुझे सबसे ज़्यादा मुतासिर करती थी. वो थी- लखनऊ की मुश्तरक़ा तहज़ीब में उनकी अक़ीदत. वो इसी तहज़ीब के परवर्दा थे, और सरापा लखनवी तहज़ीब थे. पहले आप का मत्र उन्हें हमेशा याद रहा. वो एक धर्मपरायण हिन्दू थे जो नवरात्र में दुर्गासप्तशती, मोहर्रम की मजलिसों में मर्सिए और मीलाद के मौक़े पर नातो-सलाम यकसां अक़ीदत के साथ पढ़ते थे. उनके कितने ही मर्सिए आज भी मजलिसों में पढ़े जाते हैं. इमाम हुसैन से उनकी अक़ीदत का ये आलम था के ज़ाती गुफ़्तगू में भी इमाम हुसैन के ज़िक्र पर उनकी आंखें डबडबा जातीं थीं. जबकि ये कोई मजलिस नहीं थी कि जहां उन्हें शियों के मजमे को इम्प्रेस करना हो. लखनऊ के उम्मी शोअरा में से एक हादी रज़ा हादी ने मुझे बताया था कि आजिज़ साहब के मर्सिए लखनऊ की बहुत सी अंजुमनें पढ़ती हैं. जानने वाले जानते हैं कि लखनऊ में हिन्दू मर्सियानिगारों का एक तवील सिलसिला रहा है. छन्नूलाल दिलगीर, रामप्रसाद बशीर, विश्वनाथ प्रसाद माथुर, द्वारका प्रसाद उफुक, बशेश्वर प्रसाद मुनव्वर, नानकचंद नानक, कृश्न बिहारी नूर वगैरह वगैरह. पंडित हनुमान प्रसाद शर्मा ’आजिज़’ इसी सिलसिले की एक कड़ी थे. उस दौर में जब ‘गंगा-जमुनी’ लफ़्ज़ लगातार कट्टरपंथियों के निशाने पर हो, आजिज़ साहब इस लफ़्ज़ की दिफ़ा में खड़े सबसे मोतबर मर्द-ए-मैदां थे. उन्हें गर्व था कि वो अवध की गंगा-जमुनी तहज़ीब के नुमाइंदे हैं, क्योंकि ये नुमाइंदगी सिर्फ अवध में पैदा होने से नहीं मिल जाती, बल्कि अपनी मेहनत-ओ-लियाकत के दम पर हासिल होती है.
यहां उनके बारे में एक और बात ग़ौरतलब है जो मुझे शायद पहले लिखनी चाहिए थी. आजिज़ साहब को इस्लामियात (इस्लामी धर्मशास्त्र) में जो महारथ हासिल थी उसके चलते अपने जानने वालों के बीच वो जीते-जी एक अफ़सानवी क़िरदार बन गए थे. नफ़रतों के इस दौर में आजिज़ साहब जैसे लोग सचमुच किताबी लगते हैं. जो इस मेहनत और अक़ीदत से किसी दूसरे मज़हब का इल्म हासिल करें. इस इल्म को इत्तेहाद के लिए इस्तेमाल करें. इस्लामियात पर उनके उबूर को अयां करने वाले अनगिनत क़िस्से मिलते हैं. जिनको सलीक़े से एक दूसरे में जोड़ा जाए तो एक अलिफ-लैलवी दास्तान बन जाएगी. अभिषेक ने अपने मज़मून में शौक़ अस्री साहब से उनके अदबी मार्के का ज़िक्र किया है,जिसमें एक लफ़्ज़ के इस्तेमाल पर बहस हुई थी और आजिज़ साहब ने उनको लिखे ख़त में क़ुरआन की एक आयत कोट करते हुए उस लफ्ज़ का सही तलफ़्फ़ुज़ और इस्तेमाल उनको बताया था. अनवर जलालपुरी साहब ने मुझे बताया था कि कई मुसलमान इस्लामियात से जुड़े मामलों में कुछ डाउट होने पर न सिर्फ आजिज़ साहब से तस्दीक़ करते थे बल्कि उनकी राय को मुस्तनद भी मानते थे. अनवर साहब ने इस सिलसिले में अपने साले रईस अहमद साहब की मिसाल दी थी. रईस साहब एक बार अनवर साहब से मिलने लखनऊ आए तो आजिज़ साहब भी उनके साथ बैठे थे. आजिज़ साहब ने इस्लामियात से जुड़े किसी नुक़्ते पर कोई बात कही तो रईस भाई ने उसे इख़्तेलाफ़ के साथ काट दिया. रईस साहब इस्लामियात को लेकर पहरों सर धुनते थे. उनको लगा कि आजिज़ साहब हिन्दू हैं, वो इस्लामियात को कितना समझते होंगे. मगर बक़ौल अनवर साहब जब आजिज़ साहब ने इस्लामी किताबों, तारीख़ और रिवायत का हवाला देते हुए बहस शुरू की तो रईस भाई को फौरन उनका मर्तबा समझ में आ गया. इसके बाद उन्होंने आजिज़ साहब से कहा कि आप ही बोलिए, मै सिर्फ सुनूंगा. आजिज़ साहब इस्लाम से जुड़े मुख़्तलिफ़ मौज़ूआत पर मुस्तनद हवालों के साथ बात करते रहे. तकरीबन घंटे भर बाद जब उन्होंने अपनी बात ख़त्म की तो रईस साहब ने उनका शुक्रिया अदा करते हुए कहा कि पंडित जी अब से मैं जब भी लखनऊ आऊंगा, कोशिश करूंगा कि कम से कम एक घंटा आपके साथ ज़रूर बैठूं. क्योंकि मेरे जो डाउट सालहा साल मुताले करने के बाद भी नहीं मिटे थे, वो आपको सुनकर सिर्फ एक घंटे में दूर हो गए.
आजिज़ साहब रिटायरमेंट के बाद लखनऊ छोड़कर माती में बस गए थे. मैने एकबार उनसे पूछा था कि दूसरे शोअरा तो पीरी में लखनऊ आने की आरज़ू करते हैं, आप लखनऊ छोड़कर माती क्यों लौट गए ? बोले- ‘क्या ये वही लखनऊ है जिसकी आरज़ू शोअरा करते थे ? भइया मैं गांव का आदमी हूं. मुझे वहीं अच्छा लगता है. लखनऊ में बहुत शोर है’. हर इंसान की शख़्सियत के अनगिनत पहलू होते हैं, मगर इनमें से कोई एक होता है जहां उस इंसान की जान बसती है, जिसे वो जीता है. आजिज़ साहब की शख़्सियत के भी हज़ार रूप थे. मगर वो जीते अपने गांव वाले रूप को ही थे. वो बुनियादी तौर पर गांव के ही आदमी थे. वे शदीद लखनवी के शागिर्द थे और लखनऊ की अदबी विरासत के सच्चे वारिस, अगर चाहते तो अपने आप को आजिज़ लखनवी भी कह सकते थे, शायद ही किसी लखनवी को इस पर ऐतराज़ होता. बल्कि लखनऊ तो उनके नाम से जुड़कर और मोतबर हो जाता लेकिन उन्होंने अपने नाम के आगे अपने छोटे से गांव माती का नाम जोड़ा. ये बेसबब नहीं था कि हिन्दी उर्दू और अरबी, फ़ारसी का ये महापंडित अवधी को अपनी ज़बान मानता था और आमतौर पर उसी में बात करता था. उनको खेत-खलिहान, बाग़, बग़ीचे, मेलो-ठेलों, नदी-तालाब आदि पर अवधी में बात करते हुए सुनना भी उतना ही हैरतंगेज़ एहसास था जितना कि हाफिज़ और ख़ाकानी पर उनके तनक़ीदी तब्सरे सुनना. आजिज़ साहब के करीब आने के लिए आपका शाइर या आलिम फ़ाज़िल होना ज़रूरी नहीं था. वो हर तबक़े के आदमी को अपना बनाना जानते थे. अवध की अद्भुत लोक संस्कृति के महान प्रतिनिधि थे वो.
आजिज़ साहब कहते थे कि आप जब किसी महफ़िल से उठकर के जाएं तो आपके बाद आपके सिलसिले में जो भी ज़िक्र हो, उसकी धुरी पर आपका कोई ऐब नहीं होना चाहिए. जो भी बयान की जाए,आपकी ख़ूबी बयान की जाए. वो ये बात सिर्फ दूसरों से कहने के लिए नहीं कहते थे. वो खुद भी इस पर हमेशा खरे उतरे. दुनिया में रहे तो इसके चेहरे की रौनक़ बन कर. दुनिया से गए तो इसके आंसुओं का उजाला बनकर. आजिज़ साहब को कैंसर होने की ख़बर मुझे अभिषेक से मिली. अभिषेक उनके आख़िरी वक़्त में मुस्तक़िल उनके साथ रहे. मैं उस पूरे दौर का शाहिद हूं. आजिज़ साहब जैसे उस्ताद तो नायाब हैं ही, अभिषेक जैसे शागिर्द भी कम ही मिलेंगे. अपनी तोड़ देने वाली नौकरी के बावजूद अभिषेक ने आख़िरी वक़्त में आजिज़ साहब की बहुत ख़िद्मत की. उनके इंतक़ाल से चंद रोज़ पहले का एक वीडियो है. जिसमें आजिज़ साहब अस्पताल के बिस्तर पर बैठे हैं. अभिषेक उन्हें बहुत प्यार से शेर सुनाने के लिए मना रहे हैं. जिस तरह मां-बाप छोटे बच्चे से ‘पोयम’ सुनाने को कहते हैं…और आजिज़ साहब भी एकदम बच्चे की तरह हंसते-शर्माते अपना कलाम सुना रहे हैं-
बेहोश न समझो मुझे बा-होश हूं मैं
ये बात भी सच है कि बलानोश हूं मैं
मैं आपकी हर बात का दे देता जवाब
कुछ मस्लेहत है जिससे के ख़ामोश हूं मैं…
आजिज़ साहब ख़ामोशी से रूख़्सत हो गए. मगर अपने पीछे एक दिलफ़रेब दास्तान छोड़ गए, जो हश्र तक सुनाई जाती रहेगी. अभिषेक ने अपने मज़मून को आजिज़ साहब के शेर पर ख़त्म किया था. मैं ये मज़मून उनके पसंदीदा शाइर फिरदौसी के शेर पर ख़त्म करता हूं-
न मीरम अज़ ईं,पस की मनज़िंदे-अम
कि तुख़्म-ए-सुख़न रा पराकन्दे अम
(रहती दुनिया तक मै कभी मर नहीं सकता, क्योंकि मैने दुनिया की जमीन पर साहित्य के जो बीज बोए हैं, उनसे हुई फसल मेरे जाने के बाद भी हमेशा लहलहाएगी और मेरी याद दिलाएगी)